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________________ - दोहा १३३ ] २४९ वणिण दिट्ठ ते पुरुषा गृहधनधान्यादिपदार्था वा अस्तमने न दृष्टाः, एवमधुवत्वं ज्ञात्वा । कारण वढ धम्मु करि तेन कारणेन वत्स पुत्र सागारानगारधर्मं कुरु । धणि जोव्वणि कति धने यौवने वा का तृष्णा न कापीति । तद्यथा । गृहस्थेन धने तृष्णा न कर्तव्या तर्हि किंकर्तव्यम् । भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानां सर्वतात्पर्येणाहारादिचतुर्विधं दानं दातव्यम् । नो चेत् सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा निर्विकल्पपरमसमाधौ स्थातव्यम् । यौवनेऽपि तृष्णा न कर्तव्या, यौवनावस्थायां यौवनोद्रेकजनितविषयरागं त्यक्त्वा विषयप्रतिपक्षभूते वीतरागचिदानन्दैकस्वभावे शुद्धात्मस्वरूपे स्थित्वा च निरन्तरं भावना कर्तव्येति भावार्थः ।। १३२ ।। अथ धर्मतपश्चरणरहितानां मनुष्यजन्म वृथेति प्रतिपादयति परमात्मप्रकाराः धम्मु ण संचित ण किउ रुक्खे चम्ममएण । खज्जिवि जर उद्देहियए णरह पडिव्वउ तेण ॥ १३३ ॥ धर्मो न संचितः तपो न कृतं वृक्षेण चर्ममयेन । खादयित्वा जरोदेहिकया नरके पतितव्यं तेन ॥ १३३ ॥ धम्मु इत्यादि । धम्मु ण संचित धर्मसंचयो न कृतः गृहस्थावस्थायां दानशीलपूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृतः, दर्शनिकवतिकाद्येकादशविधश्रावकधर्मरूपो वा । तउ जाते हैं, [तेन कारणेन] इस कारण तू [ धर्मं ] धर्मको [ कुरु ] पालन कर, [धने यौवने] धन और यौवन अवस्थामें [का तृष्णा ] क्या तृष्णा कर रहा हैं ? भावार्थ-धन, धान्य, घर, मनुष्य, पशु आदिक पदार्थ जो सबेरेके समय देखे थे, वे सांझके समयमें नहीं दीखते, नष्ट हो जाते हैं ऐसा जगतका ठाठ विनाशीक जानकर इन पदार्थोंकी तृष्णा छोड, और श्रावकका तथा यतिका धर्म स्वीकार कर । धन यौवनमें क्या तृष्णा कर रहा है ? ये तो जलके बबूलेके समान क्षणभंगुर हैं । यहाँ कोई प्रश्न करे, कि गृहस्थी धनकी तृष्णा न करे तो क्या करे ? उसका उत्तर- निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके आराधक जो यति उनकी सब तरह गृहस्थको सेवा करनी चाहिए, चार प्रकारका दान देना, धर्मकी इच्छा रखनी, धनकी इच्छा नहीं करनी । यदि किसी दिन प्रत्याख्यानकी चौकडीके उदयसे श्रावकके व्रतमें भी रहे, तो देव पूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, दान, शील, उपवासादि अणुव्रतरूप धर्म करे, और यदि बडी शक्ति होवे, तो सब परिग्रहका त्यागकर यतिके व्रत धारण करके निर्विकल्प परमसमाधिमें रहे । यतिको तो सर्वथा धनका त्याग और गृहस्थको धनका प्रमाण करना योग्य है । विवेकी गृहस्थ धनकी तृष्णा न करें । धन यौवन असार है, यौवन अवस्थामें विषय तृष्णा न करे, विषयका राग छोडकर, विषयोंसे पराङ्मुख जो वीतराग निजानन्द एक अखंड स्वभावरूप शुद्धात्मा उसमें लीन होकर हंमेशा भावना करनी चाहिये ॥ १३२ ॥ Jain Education International आगे जो धर्मसे रहित हैं, और तपश्चरण भी नहीं करते हैं, उनका मनुष्य जन्म वृथा है, ऐसा कहते हैं-[येन] जिसने [चर्ममयेन वृक्षेण ] मनुष्य शरीररूपी चर्ममयी वृक्षको पाकर उससे [ धर्मः न कृतः ] धर्म नहीं किया, [ तपो न कृतं ] और तप भी नहीं किया, उसका शरीर [जरोद्रेहिकया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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