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________________ २२२ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० २, दोहा १०४ मङ्गानि भवन्ति जे बाल ये बालवृद्वादिपर्यायाः तेऽपि विधिवशेनैव । अथवा संबोधनं हे बाल अज्ञान । जिय पुणु सयल वि तित्तडा जीवाः पुनः सर्वेऽपि तत्प्रमाणा द्रव्यप्रमाणं प्रत्यनन्ताः, क्षेत्रापेक्षयापि पुनरेककोऽपि जीवो यद्यपि व्यवहारेण स्वदेहमात्रस्तथापि निश्चयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः । क । सव्वत्थ वि सर्वत्र लोके । न केवलं लोके सयकाल सर्वत्र कालत्रये तु । अत्र जीवानां बादरसूक्ष्मादिकं व्यवहारेण कर्मकृतभेदं दृष्ट्वा विशुद्धदर्शनज्ञानलक्षणापेक्षया निश्चयनयेन भेदो न कर्तव्य इत्यभिप्रायः ॥ १०३ ॥ अथ जीवानां शत्रु मित्रादिभेदं यः न करोति स निश्चयनयेन जीवलक्षणं जानातीति प्रतिपादयति १०४ ॥ सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु वि एइ । एक करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेह ॥ शत्रुरपि मित्रमपि आत्मा परः जीवा अशेषा अपि एते । एकत्वं कृत्वा यो मनुते स आत्मानं जानाति ॥ १०४ ॥ विइत्यादि । सन्तु वि शत्रुरपि मित्तु वि मित्रमपि जीव असेसु वि जीवा अशेषा अपि एइ एते प्रत्यक्षीभूताः एक्कु करेविणु जो मुणइ एकत्वं कृत्वा यो मनुते शत्रु मित्रजीवितमरणलाभादिसमताभावनारूपवीतरागपरमसामायिकं कृत्वा योऽसौ जीवानां शुद्धसंग्रह नये नैकत्वं इस जीवने उपार्जन किये शुभाशुभ कर्मोंके योगसे ये चतुर्गतिके शरीर होते हैं, और बाल वृद्धादि अवस्थायें होती हैं । ये अवस्थायें कर्मजनित हैं, जीवकी नहीं है । हे अज्ञानी जीव, यह बात तू निःसंदेह जान । ये सभी जीव द्रव्य प्रमाणसे अनन्त हैं, क्षेत्रकी अपेक्षा एक एक जीव यद्यपि व्यवहारनयकर अपने मिले हुए देहके प्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं । सब लोकमें सब कालमें जीवोंका यही स्वरूप जानना | बादर सूक्ष्मादि भेद कर्मजनित होना समझकर (देखकर ) जीवोंमें भेद मत जानो । विशुद्ध ज्ञान दर्शनकी अपेक्षा सब ही जीव समान हैं, कोई भी जीव दर्शन ज्ञान रहित नहीं है, ऐसा जानना ॥ १०३ ॥ आगे जो जीवोंके शत्रु मित्रादि भेद नहीं करता है, वह निश्चयकर जीवका लक्षण जानता है, ऐसा कहते हैं - [ एते अशेषा अपि ] ये सभी [ जीवाः ] जीव हैं, उनमेंसे [ शत्रुरपि ] कोई एक किसीका शत्रु भी है, [मित्रं अपि ] मित्र भी है, [ आत्मा] अपना है, और [ परः ] दूसरा है । ऐसा व्यवहारसे जानकर [यः ] जो ज्ञानी [ एकत्वं कृत्वा ] निश्चयसे एकपना करके अर्थात् सबमें समदृष्टि रखकर [ मनुते ] समान मानता है, [सः ] वही [आत्मानं ] आत्माके स्वरूपको [ जानाति ] जानता है । भावार्थ - इन संसारी जीवोंमें शत्रु आदि अनेक भेद दीखते हैं, परंतु जो ज्ञानी सबको एक दृष्टिसे देखता है - समान जानता है; शत्रु, मित्र, जीवित, मरण, लाभ, अलाभ आदि सबोंमे समभावरूप जो वीतराग परमसामायिकचारित्र उसके प्रभावसे जो जीवोंको शुद्ध संग्रहनयकर जानता है, सबको समान मानता है, वही अपने निज स्वरूपको जानता है । जो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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