________________
२२१
-दोहा १०३]
परमात्मप्रकाशः .यः करोति । कम् । जीवहं भेउ विचित्तु जीवानां भेदं विचित्रं नरनारकादिदेहरूपं, सो णवि लक्खणु मुणइ तहं स नैव लक्षणं मनुते तेषां जीवानाम् । किंलक्षणम् । दसणु णाणु चरित्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमिति । अत्र निश्चयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणानां जीवानां ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यचाण्डालादिदेहभेदं दृष्ट्वा रागद्वेषौ न कर्तव्याविति तात्पर्यम् ।। १०२॥ अथ शरीराणि बादरसूक्ष्माणि विधिवशेन भवन्ति न च जीवा इति दर्शयति
अंगई सुहुमइ बादरइँ विहि-वसिँ होति जे बाल । जिय पुणु सयल वि तित्तडा सव्वत्थ वि सय-काल ॥ १०३ ॥ अङ्गानि सूक्ष्माणि बादराणि विधिवशेन भवन्ति ये बालाः ।
जीवाः पुनः सकला अपि तावन्तः सर्वत्रापि सदाकाले ॥ १०३ ॥ अंगई इत्यादि पदरखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । अंगई सुहमइं चादरई अङ्गानि सूक्ष्मबादराणि जीवानां विहिवसिं होति विधिवशाद्भवन्ति अगोद्भवपञ्चेन्द्रियविषयकांक्षामूलभूतानि दृष्टश्रुतानुभूतभोगवा छारूपनिदानबन्धादीनि यान्यपध्यानानि, तद्विलक्षणा यासौ खशुद्धात्मभावना तद्रहितेन जीवेन यदुपार्जितं विधिसंज्ञं कर्म तद्वशेन भवन्त्येव । न केवलहै ॥ भावार्थ-देहके ममत्वके मूल कारण ख्याति (अपनी बडाई) पूजा और लाभरूप जो आर्त रौद्रस्वरूप खोटे ध्यान उनसे रहित निज शुद्धात्माका ध्यान उसके अभावसे इस जीवने उपार्जन किये जो शुभ अशुभ कर्म उनके उदयसे उत्पन्न जो शरीर है, उसके भेदसे भेद मानता है, उसको दर्शनादि गुणोंकी गम्य नहीं है । यद्यपि पापके उदयसे नरक योनि, पुण्यके उदयसे देवोंका शरीर और शुभाशुभ मिश्रसे नर-देह तथा मायाचारसे पशुका शरीर मिलता है, अर्थात् इन शरीरोंके भेदोंसे जीवोंकी अनेक चेष्टायें देखी जाती हैं, परंतु दर्शन ज्ञान लक्षणसे सब तुल्य हैं । उपयोग लक्षणके बिना कोई जीव नहीं है । इसलिये ज्ञानीजन सबको समान जानते हैं । निश्चयनयसे दर्शन ज्ञान चारित्र जीवोंके लक्षण हैं, ऐसा जानकर ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र चांडालादि देहके भेद देखकर राग द्वेष नहीं करना चाहिये । सब जीवोंसे मैत्रीभाव करना यही तात्पर्य है ।।१०२।।
आगे सूक्ष्म बादर शरीर जीवोंके कर्मके सम्बंधसे होते हैं, सो सूक्ष्म बादर स्थावर जंगम ये सब शरीरके भेद हैं, जीव तो चिद्रूप है, सब भेदोंसे रहित है, ऐसा दिखलाते हैं-[सूक्ष्माणि] सूक्ष्म [बादराणि] और बादर [अंगानि] शरीर [ये] तथा जो [बालाः] बाल वृद्ध तरुणादि अवस्थायें [विधिवशेन] कर्मोसे [भवंति होती हैं, [पुनः] और [जीवाः] जीव तो [सकला अपि] सभी [सर्वत्र] सब जगह [सर्वकाले अपि] और सब कालमें [तावंतः] उतने प्रमाण ही अर्थात् असंख्यातप्रदेशी ही है । भावार्थ-जीवोंके शरीर व बाल वृद्धादि अवस्थायें कर्मोंके उदयसे होती हैं । अर्थात् अंगोंसे उत्पन्न हुए जो पंचेंद्रियोंके विषय उनकी वांछा जिनका मूल कारण है, ऐसे देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप निदान बंधादि खोटे ध्यान उनसे विमुख जो शुद्धात्माकी भावना उससे रहित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org