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योगीन्दुदेवविरचितः
जो भत्तउ रयण-त्तयह तसु मुणि लक्खणु एउ |
अच्छउ कहि वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ ।। ९५ ।।
यः भक्तः रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं इदम् ।
तिष्ठतु कस्यामपि कुड्यां स तस्य करोति न भेदम् ॥ ९५ ॥
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जो इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । जो यः भत्त भक्तः । कस्य । रयणत्तयहं रत्नत्रयस्य तसु तस्य पुरुषस्य मुणि मन्यस्व जानीहि । किम् । लक्खणु एउ लक्षणं इदं प्रत्यक्षीभूतम् । इदं किम् | अच्छउ कहिं वि कुडिल्लियह तिष्ठतु कस्यामपि कुडयां शरीरे सो तसु करइ ण भेउ स ज्ञानी तस्य जीवस्य देहभेदेन भेदं न करोति । तथाहि । योऽसौ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी निश्चयस्य निश्चयरत्नत्रयलक्षणपरमात्मनो वा भक्तः तस्येदं लक्षणं जानीहि । हे प्रभाकरभट्ट । कापि देहे तिष्ठतु जीवस्तथापि शुद्धनिश्चयेन षोडशवर्णिकासुवर्णवत्केवलज्ञानादिगुणैर्भेदं न करोतीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । हे भगवन् जीवानां यदि देहभेदेन भेदो नास्ति तर्हि यथा केचन वदन्त्येक एव जीवस्तन्मतमायातम् । भगवानाह । शुद्धसंग्रहनयेन सेनावनादिवज्जात्यपेक्षया भेदो नास्ति व्यवहारनयेन पुनर्व्यक्त्यपेक्षया वने भिन्नभिन्नवृक्षवत् सेनायां भिन्नभिन्नहस्त्यश्वादिवद्भेदोऽस्तीति भावार्थः ॥ ९५ ॥
अथ त्रिभुवनस्थजीवानां मूढा भेदं कुर्वन्ति, ज्ञानिनस्तु भिन्नभिन्नसुवर्णानां षोडशवर्णिकैकत्वत्रत्केवलज्ञानलक्षणेनैकत्वं जानन्तीति दर्शयति—
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[ अ० २, दोहा ९६
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जीवहँ तिहुयण-संठियाँ मूढा भेउ करंति । केवल-णाणि णाणि फुड्डु सयलु वि एकु मुणंति ॥ ९६ ॥
देहके भेदसे गुरुता लघुताका भेद करता है, परंतु ज्ञानदृष्टिसे सबको समान देखता है । भावार्थ- वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी निश्चयरत्नत्रयके आराधकके ये लक्षण हे प्रभाकरभट्ट, तू निःसंदेह जान, जो किसी शरीरमें कर्मके उदयसे जीव रहे, परंतु निश्चयसे शुद्ध बुद्ध ( ज्ञानी) ही है । जैसे सोनेमें वान-भेद है, वैसे जीवोंमें वान-भेद नहीं है, केवलज्ञानादि अनंत गुणोंसे सब जीव समान हैं । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, हे भगवन्, जो जीवोंमें देहके भेदसे भेद नहीं है, सब समान हैं, तब जो वेदान्ती एक ही आत्मा मानते हैं, उनको क्यों दोष देते हो ? तब श्रीगुरु उसका समाधान करते हैं, - कि शुद्धसंग्रहनयसे सेना एक ही कही जाती है, लेकिन सेनामें अनेक हैं, तो भी ऐसे कहते हैं, कि सेना आयी, सेना गयी, उसी प्रकार जातिकी अपेक्षासे जीवोंमें भेद नहीं हैं, सब एक जाति हैं, और व्यवहारनयसे व्यक्तिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं, अनंत जीव हैं, एक नहीं है । जैसे वन एक कहा जाता है, और वृक्ष जुदे जुदे हैं, उसी तरह जातिसे जीवोंमें एकता है, लेकिन द्रव्य जुदे जुदे हैं, तथा जैसे सेना एक है, परन्तु हाथी घोडे रथ सुभट अनेक हैं, उसी तरह जीवोंमें जानना || ९५||
आगे तीन लोकमें रहनेवाले जीवोंका अज्ञानी भेद करते हैं । जीवपनेसे कोई कम बढ़ नहीं हैं,
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