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________________ - दोहा ७२ ] परमात्मप्रकाशः १९३ धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्त्या । असुहें होइ अहम्मु अशुभपरिणामेन भवत्यधर्मः पापम् । दोहिं वि एहिं विवज्जियउ द्वाभ्यां एताभ्यां शुभाशुभपरिणामाभ्यां विवर्जितः । कोऽसौ । स्रुद्धु शुद्धो मिथ्यात्वरागादिरहितपरिणामस्तत्परिणतपुरुषो वा । किं करोति । ण बंधइ न नाति । किम् । कम्मु ज्ञानावरणादिकर्मेति । तद्यथा । कृष्णोपाधिपीतोपाधिस्फटिकवदयमात्मा क्रमेण शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण परिणामत्रयं परिणमति । तेन तु मिथ्यात्वविषयकषायाद्यवलम्बनेन पापं बध्नाति । अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुगुणस्मरणदानपूजादिना संसारस्थितिच्छेदपूर्वकं तीर्थकरनामकर्मादिविशिष्टगुणपुण्यमनीहितवृत्त्या बध्नाति । शुद्धात्मावलम्बनेन शुद्धोपयोगेन तु केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरूपं मोक्षं च लभते इति । अत्रोपयोगत्रयमध्ये मुख्यवृत्त्या शुद्धोपयोग एवोपादेय इत्यभिप्रायः ।। ७१ ।। एवमेकचत्वारिंशत्सूत्रममितमहास्थलमध्ये सूत्रपञ्चकेन शुद्धोपयोगव्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमान्तरस्थलं गतम् ।। अत ऊर्ध्वं तस्मिन्नेव महास्थलमध्ये पञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमुख्यत्वेन व्याख्यानं क्रियते । तद्यथा— दाणि लभइ भोज पर इंदत्तणु वि तवेण । जम्मण-मरणविवज्जियड पर लब्भइ णाणेण ॥ ७२ ॥ कषायादि अशुभ परिणामोंसे [ अधर्मः ] पाप होता है, [ अपि ] और [ एताभ्यां ] इन [ द्वाभ्यां ] दोनोंसे [विवर्जितः] रहित [ शुद्धः ] मिथ्यात्व रागादि रहित शुद्ध परिणाम अथवा परिणामधारी पुरुष [ कर्म ] ज्ञानावरणादि कर्मको [न] नहीं [ बध्नाति ] बाँधता ॥ भावार्थ- जैसे स्फटिकमणि शुद्ध उज्ज्वल है, उसके यदि काला डंक लगावें, तो काला मालूम होता है, और पीला डंक लगावें तो पीला भासता है, और यदि कुछ भी न लगावें, तो शुद्ध स्फटिक ही है, उसी तरह यह आत्मा क्रमसे अशुभ शुभ शुद्ध इन परिणामोंसे परिणत होता है । उनमेंसे मिथ्यात्व और विषय कषायादि अशुभके अवलम्बन (सहायता) से तो पापको ही बाँधता है, उसके फलसे नरक निगोदादिके दुःखोंको भोगता है और अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँच परमेष्ठियोंके गुणस्मरण और दानपूजादि शुभ क्रियाओंसे संसारकी स्थितिका छेदनेवाला जो तीर्थंकरनामकर्म उसको आदि ले विशिष्ट गुणरूप पुण्यप्रकृतियोंको अवाँछीक वृत्तिसे बाँधता है । तथा केवल शुद्धात्माके अवलम्बनरूप शुद्धोपयोगसे उसी भवमें केवलज्ञानादि अनन्तगुणरूप मोक्षको पाता है । इन तीन प्रकारके उपयोगोंमेंसे सर्वथा उपादेय तो शुद्धोपयोग ही है, अन्य नहीं है । और शुभ अशुभ इन दोनोंमेंसे अशुभ तो सब प्रकारसे निषिद्ध है, नरक निगोदका कारण है, किसी तरह उपादेय नहीं है-हैय है, तथा शुभोपयोग प्रथम अवस्थामें उपादेय है, और परम अवस्थामें उपादेय नहीं है, हेय है ।७१ | इस प्रकार इकतालीस दोहोंके महास्थलमें पाँच दोहोंमें शुद्धोपयोगका व्याख्यान किया । आगे पन्द्रह दोहोंमें वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं - [ दानेन ] दानसे [ परं ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org पर०२३ Jain Education International
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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