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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ७१यत्र भाति तत्र याहि जीव यद् भाति कुरु तदेव ।
कथमपि मोक्षः नास्ति परं चित्तस्य शुद्धिर्न यदेव ॥ ७० ॥ जहिं भावइ इत्यादि । जहिं भावइ तहिं यत्र देशे प्रतिभाति तत्र जाहि गच्छ जिय हे जीव । जं भावइ करि तं जि यदनुष्ठानं प्रतिभाति कुरु तदेव । केम्वइ मोक्खु ण अस्थि कथमपि केनापि प्रकारेण मोक्षो नास्ति पर परं नियमेन । कस्मात् । चित्तहं सुद्धि ण चित्तस्य शुद्धिर्न जं जि यस्मादेव कारणात् इति । तथाहि । ख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपदुनिः शुद्धात्मानुभूतिपतिपक्षभूतैर्यावत्कालं चित्तं रञ्जितं मूर्छितं तन्मयं तिष्ठति तावत्कालं हे जीव वापि देशान्तरं गच्छ किमप्यनुष्ठानं कुरु तथापि मोक्षो नास्तीति । अत्र कामक्रोधादिभिरपध्यानर्जीवो भोगानुभवं विनापि शुद्धात्मभावनाच्युतः सन् भावेन कर्माणि बनाति तेन कारणेन निरन्तरं चित्तशुद्धिः कर्तव्येति भावार्थः ॥ तथा चोक्तम्-" कंखिदकलुसिदभूदो हु कामभोगेहि मुच्छिदो जीवो। णवि भुंजतो भोगे बंधदि भावेण कम्मणि ॥"॥७०॥ अथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयं कथयति
सुह-परिणामें धम्मु पर असुहे होइ अहम्मु । दोहिं वि एहि विवज्जियउ सुद्ध ण बंधइ कम्मु ।। ७१ ॥ शुभपरिणामेन धर्मः परं अशुभेन भवति अधर्मः ।
द्वाभ्यामपि एताभ्यां विवर्जितः शुद्धो न बध्नाति कर्म ॥ ७१ ॥ मुह इत्यादि पदरखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । सुहपरिणामें धम्मु पर शुभपरिणामेन जा, और [यत्] जो [भाति] अच्छा लगे, [तदेव] वही [कुरु] कर, [परं] लेकिन [यदेव] जब तक [चित्तस्य शुद्धिः न] मनकी शुद्धि नहीं है, तब तक [कथमपि] किसी तरह [मोक्षो नास्ति] मोक्ष नहीं हो सकता ।। भावार्थ-बडाई, प्रतिष्ठा, परवस्तुका लाभ, और देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप खोटे ध्यान, (जो कि शुद्धात्मज्ञानके शत्रु हैं) इनसे जब तक यह चित्त रँगा हुआ है, अर्थात् विषय-कषायोंसे तन्मयी है, तब तक हे जीव; किसी देशमें जा, तीर्थादिकोंमें भ्रमण कर, अथवा चाहे जैसा आचरण कर, किसी प्रकार मोक्ष नहीं है । सारांश यह है, कि कामक्रोधादि खोटे ध्यानसे यह जीव भोगोंके सेवनके बिना भी शुद्धात्मभावनासे च्युत हुआ, अशुद्ध भावोंसे कर्मोंको बाँधता है । इसलिए हमेशा चित्तकी शुद्धता रखनी चाहिये । ऐसा ही कथन दूसरी जगह भी ‘कंखिद' इत्यादि गाथासे कहा है, इस लोक और परलोकके भोगोंका अभिलाषी और कषायोंसे कालिमारूप हुआ अवर्तमान विषयोंका वांछक और वर्तमान विषयोंमें अत्यन्त आसक्त हुआ अति मोहित होनेसे भोगोंको नहीं भोगता हुआ भी अशुद्ध भावोंसे कर्मोंको बाँधता है ॥७०॥
आगे शुभ अशुभ और शुद्ध इन तीन उपयोगोंको कहते हैं-[शुभपरिणामेन] दान पूजादि शुभ परिणामोंसे [धर्मः] पुण्यरूप व्यवहारधर्म [परं] मुख्यतासे [भवति] होता है, [अशुभेन] विषय
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