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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ५५रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं, तत्रैव स्वशुद्धात्मनि वीतरागसहजानन्दैकस्वसंवेदनपरिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, वीतरागसहजानन्दैकपरमसमरसीभावेन तत्रैव निश्चलस्थिरवं सम्यक्चारित्रं, इत्येतैत्रिभिः परिणतमात्मानं योऽसौ मोक्षकारणं न जानाति स एव पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं च करोतीति । यस्तु पूर्वोक्तरनत्रयपरिणतमात्मानमेव मोक्षमार्ग जानाति तस्य तु सम्यग्दृष्टेर्यद्यपि संसारस्थितिच्छेदकारणेन सम्यक्त्वादिगुणेन परंपरया मुक्तिकारणं तीर्थकरनामकर्मप्रकृत्यादिकमनीहितवृत्त्या विशिष्टपुण्यमास्रवति तथाप्यसौ तदुपादेयं न करोतीति भावार्थः ॥ ५४॥
अथ योऽसौ निश्चयेन पुण्यपापद्वयं समानं न मन्यते स मोहेन मोहितः सन् संसारं परिभ्रमतीति कथयति
जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ । सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ ॥ ५५ ॥ यः नैव मन्यते जीवः समाने पुण्यमपि पापमपि द्वे ।
स चिरं दुःख सहमानः जीव मोहेन हिण्डते लोके ॥ ५५ ॥ जो इत्यादि । जो णवि मण्णइ यः कर्ता नैव मन्यते जीउ जीवः । किं न मन्यते । समु समाने । के । पुण्णु वि पाउ वि दोइ पुण्यमपि पापमपि द्वे सो स जीवः चिरु दुक्खु सहंतु चिरं बहुतरं कालं दुःखं सहमानः सन् जिय हे जीव मोहिं हिंडइ लोइ मोहेन मोहितः सन् हिण्डते भ्रमति । क । लोके संसारे इति । तथा च । यद्यप्यसद्भूतव्यवहारेण द्रव्यपुण्यपापे नित्यानन्द स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान और वीतरागपरमानन्द परम समरसीभावकर उसीमें निश्चय स्थिरतारूप सम्यक्चारित्र-इन तीनों स्वरूप परिणत हुआ जो आत्मा उसको जो जीव मोक्षका कारण नहीं जानता, वह ही पुण्यको आदरने योग्य जानता है और पापको त्यागने योग्य जानता है । तथा जो सम्यग्दृष्टि जीव रत्नत्रयस्वरूप परिणत हुए आत्माको ही मोक्षका मार्ग जानता है, वह यद्यपि संसारकी स्थितिके छेदनका कारण, और सम्यक्त्वादि गुणसे परम्पराय मुक्तिका कारण ऐसी तीर्थंकरनामप्रकृति आदि शुभ (पुण्य) प्रकृतियोंको (कर्मोको) अवांछितवृत्तिसे ग्रहण करता है, तो भी उपादेय नहीं मानता है । कर्मप्रकृतियोंको त्यागने योग्य ही समझता है ॥५४।। ____ आगे जो निश्चयनयसे पुण्य पाप दोनोंको समान नहीं मानता, वह मोहसे मोहित हुआ संसारमें भटकता है, ऐसा कहते हैं-[यः] जो [जीवः] जीव [पुण्यमपि पापमपि द्वे] पुण्य और पाप दोनोंको [समाने] समान [नैव मन्यते नहीं मानता, [सः] वह जीव [मोहेन] मोहसे मोहित हुआ [चिरं] बहुत कालतक [दुःखं सहमानः] दुःख सहता हुआ [लोके] संसारमें [हिंडते] भटकता है ।। भावार्थ-यद्यपि असद्भूत (असत्य) व्यवहारनयसे द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप ये दोनों एक दूसरेसे भिन्न हैं, और अशुद्धनिश्चयनयसे भावपुण्य और भावपाप ये दोनों भी आपसमें भिन्न हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर पुण्य पाप रहित शुद्धात्मासे दोनों ही भिन्न हुए बंधरूप होनेसे दोनों समान ही हैं ।
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