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-दोहा ५४ ] परमात्मप्रकाशः
१७५ निजविभावस्वभावहेतुस्वरूपम् । जो णवि जाणइ कोइ यो नैव जानाति कश्चित् । सो पर स एव मोहिं मोहेन करइ करोति जिय हे जीव पुण्णु वि पाउ वि पुण्यमपि पापमपि । कतिसंख्योपेते अपि । दोइ द्वे अपीति । तथाहि । निजशुद्धात्मानुभूतिरुचिविपरीतं मिथ्यादर्शनं खशुद्धात्मप्रतीतिविपरीतं मिथ्याज्ञानं निजशुद्धात्मद्रव्यनिश्चलस्थितिविपरीतं मिथ्याचारित्रमित्येतत्रयं कारणं, तस्मात्रयाद्विपरीतं भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपं मोक्षस्य कारणमिति योऽसौ न जानाति स एव पुण्यपापद्वयं निश्चयनयेन हेयमपि मोहवशात्पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं करोतीति भावार्थः॥ ५३॥ ___ अथ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतमात्मानं योऽसौ मुक्तिकारणं न जानाति स पुण्यपापद्वयं करोतीति दर्शयति
दसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ । मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ ।। ५४ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रमयं यः नैवात्मानं मनुते ।
मोक्षस्य कारणं भणित्वा जीव स परं ते करोति ॥ ५४ ॥ दंसणणाणचरित्त इत्यादि । दसणणाणचरित्तमउ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमयं जो णवि अप्पु मुणेइ यः कर्ता नैवात्मानं मनुते जानाति । किं कृखा न जानाति । मोक्खहं कारणु भणिवि मोक्षस्य कारणं भणिवा मखा जिय हे जीव सो पर ताई करेइ स एव पुरुषस्ते पुण्यपापे द्वे करोतीति । तथाहि-निजशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागसहजानन्दैकरूपमुखरसास्वादहैं-यः कश्चित्] जो कोई जीव [बंधस्य मोक्षस्य हेतुः] बंध और मोक्षका कारण [निजः] अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद [नैव जानाति] नहीं जानता है, [स एव] वही [पुण्यमपि पापमपि] पुण्य और पाप [द्वे अपि] दोनोंको ही [मोहेन] मोहसे [करोति] करता है । भावार्थ- निज शुद्धात्माकी अनुभूतिकी रुचिसे विपरीत जो मिथ्यादर्शन, निज शुद्धात्माके ज्ञानसे विपरीत मिथ्याज्ञान, और निज शुद्धात्मद्रव्यमें निश्चल स्थिरतासे उलटा जो मिथ्याचारित्र इन तीनोंको बंधका कारण और इन तीनोंसे रहित भेदाभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षका कारण ऐसा जो नहीं जानता है, वही मोहके वशसे पुण्य पापका कर्ता होता है । पुण्यको उपादेय जानकर करता है, पापको हेय समझता है ॥५३॥ ____ आगे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप परिणमता जो आत्मा वह ही मुक्तिका कारण है, जो ऐसा भेद नहीं जानता है, वही पुण्य पाप दोनोंका कर्ता है, ऐसा दिखलाते हैं-यः] जो [दर्शनज्ञानचारित्रमयं] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी [आत्मानं] आत्माको [नैव मनुते] नहीं जानता, [स एव] वही [जीव] हे जीव; [ते] उन पुण्य पाप दोनोंको [मोक्षस्य कारणं] मोक्षके कारण [भणित्वा] जानकर [करोति] करता है । भावार्थ-निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग सहजानन्द एकरूप सुखरसका आस्वाद उसकी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, उसी शुद्धात्मामें वीतराग
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