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-दोहा १६*१]
परमात्मप्रकाशः पुनरपि किं करोति । वियलु हवेविणु विकलः कलरहितः शरीररहितो भूला इकलउ एकाकी पश्चात् उप्परि जगहं चडेइ उपरितनभागे जगतो लोकस्यारोहणं करोतीति । अयमत्राभिप्रायः। यः तपस्वी रागादिविकल्परहितस्य परमोपशमरूपस्य निजशुद्धात्मनो भावनां करोति स कलशब्दवाच्यं शरीरं मुक्त्वा लोकस्योपरि तिष्ठति तेन कारणेन स्तुतिं लभते अथवा यथा कोऽपि लोकमध्ये चित्तविकलो भूतः सन् निन्दां लभते तथा शब्दच्छलेन तपोधनोऽपीति ॥ ४६ ॥ अथ स्थलसंख्याबाह्यं प्रक्षेपकं कथयति
जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहि जग्गेइ । जहि पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ ॥४६*१॥ या निशा सकलानां देहिनां योगी तस्यां जागर्ति ।।
यत्र पुनः जागर्ति सकलं जगत् तां निशां मत्वा स्वपिति ।। ४६*१ ॥ जा णिसि इत्यादि।जा णिसि या वीतरागपरमानन्दैकसहजशुद्धात्मावस्था मिथ्यावरागाधन्धकारावगुण्ठिता सती रात्रिः प्रतिभाति । केषाम् । सयलहं देहियहं सकलानां स्वशुद्धात्मसंवित्तिरहितानां देहिनाम् ।जोग्गिउ तहिं जग्गेइ परमयोगी वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानरवप्रदीपमकाशेन मिथ्यावरागादिविकल्पजालान्धकारमपसार्य स तस्यां तु शुद्धात्मना जागर्ति । जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु यत्र पुनः शुभाशुभमनोवाकायपरिणामव्यापारे परमात्मतत्त्वभावार्थ-जो तपस्वी रागादि रहित परम उपशमभावरूप निज शुद्धात्माकी भावना करता है, उसकी शब्दके छलसे तो निंदा है, कि विकल अर्थात् बुद्धि वगैरहसे भ्रष्ट होकर लोक अर्थात् लोकोंके ऊपर चढता है । यह लोक-निंदा हुई । लेकिन असलमें ऐसा अर्थ है, कि विकल अर्थात् शरीरसे रहित होकर तीन लोकके शिखर (मोक्ष) पर विराजमान हो जाता है । यह स्तुति ही है । क्योंकि जो अनंत सिद्ध हुए, तथा होंगे, वे शरीर रहित निराकार होकर जगतके शिखर पर विराजे हैं ।४६।
आगे स्थलसंख्याके सिवाय क्षेपक दोहा कहते हैं-[या] जो [सकलानां देहिनां] सब संसारी जीवोंकी [निशा] रात है, [तस्यां] उस रातमें [योगी] परम तपस्वी [जागर्ति] जागता है, [पुनः] और [यत्र] जिसमें [सकलं जगत्] सब संसारी जीव [जागर्ति] जाग रहे हैं, [तां] उस दशाको [निशां मत्वा] योगी रात मानकर [स्वपिति] योग निद्रामें सोता है ।। भावार्थ-जो जीव वीतराग परमानंदरूप सहज शुद्धात्माकी अवस्थासे रहित हैं, मिथ्यात्व रागादि अन्धकारसे मंडित हैं, इसलिए इन सबोंको वह परमानंद अवस्था रात्रिके समान मालूम होती है । कैसे हैं ये जगतके जीव ? कि आत्मज्ञानसे रहित हैं, अज्ञानी है, और अपने स्वरूपसे विमुख हैं, जिनके जाग्रत-दशा नहीं हैं, अचेत सो रहे हैं, ऐसी रात्रिमें वह परमयोगी वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूपी रत्नदीपके प्रकाशसे मिथ्यात्व रागादि विकल्प-जालरूप अंधकारको दूरकर अपने स्वरूपमें सावधान होनेसे सदा जागता है । तथा शुद्धात्माके ज्ञानसे रहित शुभ अशुभ मन, वचन, कायके परिणमनरूप व्यापारवाले स्थावर जंगम सकल अज्ञानी जीव परमात्मतत्त्वकी भावनासे पराङ्मुख हुए विषय
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