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________________ -दोहा ४५ ] परमात्मप्रकाशः १६५ विणि वि दोस हवंति तसु जो सम-भाउ करेइ । बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिल करेइ ॥ ४४ ॥ द्वौ अपि दोषौ भवतः तस्य यः समभावं करोति । बन्धं एव निहन्ति आत्मीयं अन्यत् जगद् अहिलं करोति ॥ ४४ ॥ बिण्णि वि इत्यादि । बिण्णि वि द्वावपि । द्वौ कौ । दोस दोषौ हवंति भवतः तसु तस्य तपोधनस्य जो समभाउ करेइ यः समभावं करोति रागद्वेषत्यागं करोति । तौ दोषौ बंधु जि णिहणइ बन्धमेव निहन्ति । कथंभूतं बन्धम् । अप्पणउ आत्मीयं अणु पुनः जगु जगत् प्राणिगणं गहिल करेइ गहिलं पिशाचसमानं विकलं करोति । अयमत्र भावार्थः। समशब्देनात्राभेदनयेन रागादिरहित आत्मा भण्यते, तेन कारणेन योऽसौ समं करोति वीतरागचिदानन्दैकस्वभावं निजात्मानं परिणमति तस्य दोषद्वयं भवति । कथमिति चेत् । प्राकृतभाषया बंधुशब्देन ज्ञानावरणादिबन्धा भण्यन्ते गोत्रं च येन कारणेनोपशमस्वभावेन परमात्मस्वरूपेण परिणतः सन् ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं निहन्ति तेन कारणेन स्तवनं भवति, अथवा येन कारणेन बन्धुशब्देन गोत्रमपि भण्यते तेन कारणेन बन्धुघाती लोकव्यवहारभाषया निन्दापि भवतीति । तथा चोक्तम् । लोकव्यवहारे ज्ञानिनां लोकः पिशाचो भवति लोकस्याज्ञानिजनस्य ज्ञानी पिशाच इति ॥ ४४ ॥ अथ अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ । सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहँ णिलीणु हवेइ ।। ४५ ॥ [यः] जो साधु [समभावं] रागद्वेषके त्यागरूप समभावको [करोति] करता है, [तस्य] उस तपोधनके [द्वौ अपि दोषौ] दो दोष [भवतः] होते हैं । [आत्मीयं बंधं एव निहति] एक तो अपने बंधको नष्ट करता है, [पुनः] दूसरे [जगद् ग्रहिलं करोति] जगतके प्राणिओंको बावलापागल बना देता है ।। भावार्थ-यह निंदाद्वारा स्तुति है । प्राकृत भाषामें बंधु शब्दसे ज्ञानावरणादि कर्मबंध भी लिया जाता है, तथा भाईको भी कहते हैं । यहाँपर बंधु-हत्या निंद्य है, इससे एक तो बंधु-हत्याका दोष आया तथा दूसरा दोष यह है, कि जो कोई इनका उपदेश सुनता है, वह वस्त्र आभूषणका त्यागकर नग्न दिगंबर हो जाता है । कपडे उतारकर नंगा हो जाना उसे लोग गहलापागल कहते हैं । ये दोनों लोकव्यवहारमें दोष हैं, इन शब्दोंके ऐसे अर्थ ऊपरसे निकाले हैं । परंतु दूसरे अर्थमें कोई दोष नहीं है, स्तुति ही है । क्योंकि कर्मबंध नाश करने ही योग्य है, तथा जो समभावका धारक है, वह आप नग्न दिगम्बर हो जाता है, और अन्यको दिगम्बर कर देता है, सो मूढ लोग निंदा करते हैं । यह दोष नहीं है, गुण ही है । मूढ लोगोंके जाननेमें ज्ञानीजन बावले हैं, और ज्ञानियोंके जाननेमें जगतके जन बावले हैं । क्योंकि ज्ञानी जगतसे विमुख हैं, तथा जगत ज्ञानियोंसे विमुख है ॥४४॥ आगे समभावके धारक मुनिकी फिर भी निंदा स्तुति करते है-[यः] जो [समभावं] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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