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________________ १४६ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० दोहा २८परिणामीनि इति । 'जीव' शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते तेन जीवतीति जीवः, व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुर्भिः प्राणैर्जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि पुनरजीवरूपाणि । ' मुत्तं ' अमूर्तशुद्धात्मनो विलक्षणा स्पर्शरसगन्धवर्णवती मूर्तिरुच्यते तद्भावान्मूर्तः पुद्गलः । जीवद्रव्यं पुनरनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण मूर्तमपि शुद्धनिश्वयनयेनामूर्त धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि चामूर्तानि । 'सपदेसं' लोकमात्रप्रमितासंख्येयमदेशलक्षणं जीवद्रव्यमादिं कृत्वा पञ्चद्रव्याणि पञ्चास्तिकायसंज्ञानि समदेशानि कालद्रव्यं पुनर्बहुप्रदेशलक्षणकायत्वाभावादप्रदेशम् । 'एय' द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवन्ति जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि भवन्ति । 'खेत्त ' सर्वद्रव्याणामवकाशदानसामर्थ्यात् क्षेत्रमाकाशमेकं शेषपञ्चद्रव्याण्यक्षेत्राणि । 'किरिया य ' क्षेत्रारक्षेत्रान्तरगमनरूपा परिस्पन्दवती चलनवती क्रिया सा विद्यते ययोस्तौ क्रियावन्तौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि पुनर्निष्क्रियाणि । ' णिच्चं ' धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि यद्यप्यर्थपर्यायत्वेनानित्यानि तथापि मुख्यवृत्त्या विभावव्यञ्जनपर्यायाभावात् नित्यानि द्रव्यार्थिकनयेन पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्ति सहित मूर्तिक एक पुद्गलद्रव्य ही है, अन्य पाँच अमूर्तिक हैं । उनमेंसे धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चारों तो अमूर्तिक हैं, तथा जीवद्रव्य अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनयकर मूर्तिक भी कहा जाता है क्योंकि शरीरको धारण कर रहा है, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर अमूर्तिक ही है, लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी जीवद्रव्यको आदि लेकर पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय हैं, वे सप्रदेशी हैं, और कालद्रव्य बहुप्रदेश स्वभावकायपना न होनेसे अप्रदेशी है, धर्म अधर्म आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं, और जीव पुद्गल काल ये तीनों अनेक हैं । जीव तो अनंत हैं । पुद्गल अनंतानंत हैं, काल असंख्यात हैं, सब द्रव्योंको अवकाश देनेमें समर्थ एक आकाश ही है, इसलिये आकाश क्षेत्र कहा गया है, बाकी पाँच द्रव्य अक्षेत्री हैं, एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गमन करना, वह चलन हलनवती क्रिया कही गई है, यह क्रिया जीव पुद्गल दोनोंके ही है, और धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं, जीवोंमें भी संसारी जीव हलन चलनवाले हैं, इसलिये क्रियावंत हैं, और सिद्धपरमेष्ठी निःक्रिय हैं, उनके हलन चलन क्रिया नहीं है । द्रव्यार्थिकनयसे विचारा जावे तो सभी द्रव्य नित्य हैं, और अर्थपर्याय जो षट्गुणी हानिवृद्धिरूप स्वभावपर्याय हैं, उसकी अपेक्षा सब ही अनित्य हैं, तो भी विभावव्यंजनपर्याय जीव और पुद्गल इन दोनोंकी है, इसलिये इन दोनोंको ही अनित्य कहा है, अन्य चार द्रव्य विभावके अभावसे नित्य ही हैं, इस कारण यह निश्चयसे जानना कि चार नित्य हैं, दो अनित्य हैं, तथा द्रव्यकर सब ही नित्य हैं, कोई भी द्रव्य विनश्वर नहीं है, जीवको पाँचों ही द्रव्य कारणरूप हैं, पुद्गल तो शरीरादिकका कारण है, धर्म अधर्मद्रव्य गति स्थितिके कारण हैं, आकाशद्रव्य अवकाश देनेका कारण है, और काल वर्तनाका सहायी है। ये पाँचों द्रव्य जीवको कारण हैं, और जीव उनको कारण नहीं है । यद्यपि जीवद्रव्य अन्य जीवोंको गुरु शिष्यादिरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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