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________________ - दोहा २८ ] १४५ लक्षणे मोक्षस्य मार्गे स्थित्वा परः परमात्मा तस्यावलोकनमनुभवनं परमसमरसीभावेन परिणमनं परलोको मोक्षस्तत्र गम्यत इति भावार्थः ॥ २७ ॥ अथेदं व्यवहारेण मया भणितं जीवद्रव्यादिश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनमिदानीं सम्यग्ज्ञानं चारित्रं च हे प्रभाकरभट्ट शृणु त्वमिति मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति fren after a माँ ववहारेण वि दिहि | एवहि णाणु चरितु सुणि जें पावहि परमेट्ठि ॥ २८ ॥ नियमेन कथिता एषा मया व्यवहारेणापि दृष्टिः । परमात्मप्रकाशः इदानीं ज्ञानं चारित्रं शृणु येन प्राप्नोषि परमेष्ठिनम् || २८॥ णियमें नियमेन निश्चयेन कहियउ कथिता एहु मई एषा कर्मतापन्ना मया । केनैव । ववहारेण वि व्यवहारनयेनैव । एषा का । दिट्ठि दृष्टिः । दृष्टिः कोऽर्थः सम्यक्त्वम् । एवहिं इदानीं णाणु चरित् सुणि हे प्रभाकरभट्ट क्रमेण ज्ञानचारित्रद्वयं शृणु । येन श्रुतेन किं भवति । जें पावहि येन सम्यग्ज्ञानचरित्रद्वयेन प्राप्नोषि । किं प्राप्नोषि । परमेट्ठि परमेष्ठिपदं मुक्तिपदमिति । अतो व्यवहारसम्यक्त्वविषयभूतानां द्रव्याणां चूलिकारूपेण व्याख्यानं क्रियते । तद्यथा । " परिणाम जीव मुत्तं सपदेसं एय खित्त किरिया य । णिचं कारण कत्ता सव्वगदं इदरम्हि य पवेसो । " परिणाम इत्यादि । 'परिणाम' परिणामिनौ जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपरिणामाभ्यां शेषचत्वारि द्रव्याणि जीवपुद्गलवद्विभावव्यञ्जनपर्यायाभावात् मुख्यवृत्त्या पुनरकारण हैं, क्योंकि वीतराग सदा आनंदरूप स्वभावकर उत्पन्न जो अतींद्रिय सुख उससे विपरीत आकुलताके उपजानेवाले हैं, ऐसा जानकर हे जीव, तू भेदाभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षके मार्गमें लगकर परमात्माका अनुभव परमसमरसीभावसे परिणमनरूप मोक्ष उसमें गमन कर ||२७|| आगे व्यवहारनयसे मैंने ये जीवादि द्रव्योंके श्रद्धानरूपको सम्यग्दर्शन कहा है, अब सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको हे प्रभाकरभट्ट; तू सुन, ऐसा मनमें रखकर यह दोहासूत्र कहते हैं - हे प्रभाकरभट्ट, [मया ] मैंने [ व्यवहारेणैव ] व्यवहारनयसे तुझको [ एषा दृष्टिः ] ये सम्यग्दर्शनका स्वरूप [नियमेन कथिता ] अच्छी तरह कहा, [ इदानीं ] अब तू [ ज्ञानं चारित्रं ] ज्ञान और चारित्रको [ शृणु ] सुन, [ येन ] जिसके धारण करनेसे [ परमेष्ठिनं प्राप्नोषि ] सिद्धपरमेष्ठीके पदको पावेगा ।। भावार्थ-व्यवहारसम्यक्त्वके कारणभूत छह द्रव्योंका सांगोपांग व्याख्यान करते हैं “परिणाम” इत्यादि गाथासे । इसका अर्थ यह है, कि इन छह द्रव्योंमें विभावपरिणामके परिणमनेवाले जीव और पुद्गल दो ही हैं, अन्य चार द्रव्य अपने स्वभावरूप तो परिणमते हैं, लेकिन जीव पुद्गलकी तरह विभावव्यंजनपर्यायके अभावसे विभावपरिणमन नहीं है, इसलिये मुख्यतासे परिणामी दो द्रव्य ही कहे हैं, शुद्धनिश्चयनयकर शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव जो शुद्ध चैतन्यप्राण उनसे जीवता है, जीवेगा, पहले जी आया, और व्यवहारनयकर इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोश्वासरूप द्रव्यप्राणोंकर जीता है, जीवेगा, पहले जी चुका, इसलिये जीवको ही जीव कहा गया है, अन्य पर०२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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