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________________ -दोहा २०] परमात्मप्रकाशः १३५ पभणन्ति कथयन्ति । के कथयन्ति । णाणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानिनः इति । अत्र द्रष्टव्यम् । यद्यपि वज्रवृषभनाराचसंहननरूपेण पुद्गलद्रव्यं मुक्तिगमनकाले सहकारिकारणं भवति तथापि धर्मद्रव्यं च गतिसहकारिकारणं भवति, अधर्मद्रव्यं च लोकाग्रे स्थितस्य स्थितिसहकारिकारणं भवति । यद्यपि मुक्तात्मप्रदेशमध्ये परस्परैकक्षेत्रावगाहेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मनः सकाशाद्भिन्नस्वरूपेण मुक्तौ तिष्ठन्ति । तथात्र संसारे चेतनाकारणानि हेयानीति भावार्थः ॥ १९ ॥ अथ दव्वई सयलई वरि ठियइँ णियमे जासु वसंति । तं गहु दव्वु वियाणि तुहुँ जिणवर एउ भणंति ॥ २० ॥ द्रव्याणि सकलानि उदरे स्थितानि नियमेन यस्य वसन्ति । तत् नभः द्रव्यं विजानीहि त्वं जिनवरा एतद् भणन्ति ॥ २० ॥ दव्वई द्रव्याणि। कतिसंख्योपेतानि । सयलहं समस्तानि उवरि उदरे ठियई स्थितानि णियमें निश्चयेन जासु यस्य वसंति आधाराधेयभावेन तिष्ठन्ति तं तत् णहु दव्वु नभ आकाशद्रव्यं वियाणि विजानीहि तुहुं खं हे प्रभाकरभट्ट जिणवर जिनवराः वीतरागसर्वज्ञाः एउ भणंति एतद्भणंति कथयन्तीति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । यद्यपि परस्परैक क्षेत्रावगाहेन तिष्ठत्याकाशं तथापि साक्षादुपादेयभूतादनन्तसुखस्वरूपात्परमात्मनः सकाशा दत्यन्तभिन्नत्वाद्धेयमिति ॥२०॥ हैं, ऐसा वीतरागदेवने कहा है । यहाँपर एक बात देखनेकी है कि यद्यपि वज्रवृषभनाराचसंहननरूप पुद्गलद्रव्य मोक्षके गमनका सहायक है, इसके बिना मुक्ति नहीं हो सकती, तो भी धर्मद्रव्य गति सहायी है, इसके बिना सिद्धलोकको जाना नहीं हो सकता, तथा अधर्म द्रव्य सिद्धलोकमें स्थितिका सहायी है । लोक शिखरपर आकाशके प्रदेश अवकाशमें सहायी हैं । अनंत सिद्ध अपने स्वभावमें ही ठहरे हुए हैं, परद्रव्यका कुछ प्रयोजन नहीं है । यद्यपि मुक्तात्माओंके प्रदेश आपसमें एक जगह हैं, तो भी विशुद्ध ज्ञान दर्शन भाव भगवान सिद्धक्षेत्रमें भिन्न-भिन्न स्थित हैं, कोई सिद्ध किसी सिद्धसे प्रदेशोंकर मिला हुआ नहीं है । पुद्गलादि पाँचों द्रव्य जीवको यद्यपि निमित्त कारण कहे गये हैं, तो भी उपादानकारण नहीं है, ऐसा सारांश हुआ ॥१९॥ आगे आकाशका स्वरूप कहते हैं-यस्य] जिसके [उदरे] अंदर [सकलानि द्रव्याणि] सब द्रव्य [स्थितानि] स्थित हुए [नियमेन वसंति] निश्चयसे आधार आधेयरूप होकर रहते हैं, [तत्] उसको [त्वं] तू [नभः द्रव्यं] आकाशद्रव्य [विजानीहि] जान, [एतत्] ऐसा [जिनवराः] जिनेंद्रदेव [भणंति] कहते हैं । लोकाकाश आधार है, अन्य सब द्रव्य आधेय हैं ।। भावार्थयद्यपि ये सब द्रव्य आकाशमें परस्पर एक क्षेत्रावगाहसे ठहरे हुए हैं, तो भी आत्मासे अत्यंत भिन्न हैं, इसलिये त्यागने योग्य हैं, और आत्मा साक्षात् आराधने योग्य हैं, अनंतसुखस्वरूप है ॥२०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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