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________________ ११६ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ३पुच्छिउ पृष्टं खया कर्तृभूतेन । पुनरपि कः पृष्टः । मोक्खहं हेउ मोक्षस्य हेतुः कारणम् । तत्रयं जिणभासिउ जिनभाषितं णिसुणि निश्चयेन शृणु समाकर्णय जेण वियाणहि भेउ विजानासि भेदं त्रयाणां संबन्धिनमिति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । श्रीयोगीन्द्रदेवाः कथयन्ति हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मोपलम्भलक्षणं मोक्षं केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपं मोक्षफलं भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं च क्रमेण प्रतिपादयाम्यहं वं शृण्विति ॥ २॥ ___ अथ धर्मार्थकाममोक्षाणां मध्ये सुखकारणखान्मोक्ष एवोत्तम इति अभिप्रायं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति धम्महँ अत्यहँ कामह वि एयहँ सयलहँ मोक्खु । उत्तमु पभणहिणाणि जिय अण्णे जेण ण सोक्खु ॥ ३ ॥ धर्मस्य अर्थस्य कामस्यापि एतेषां सकलानां मोक्षम् । उत्तमं प्रभणन्ति ज्ञानिनः जीव अन्येन येन न सौख्यम् ॥ ३॥ धम्महं इत्यादि । धम्महं धर्मस्य धर्माद्वा अत्थहं अर्थस्य अर्थाद्वा कामहं वि कामस्यापि कामाद्वा एयहं सयलहं एतेषां सकलानां संबन्धित्वेन एतेभ्यो वा सकाशात् मोक्खु मोक्षं उत्तमु पभणहिं उत्तमं विशिष्टं प्रभणन्ति । के कथयन्ति । णाणि ज्ञानिनः । जिय हे जीव । कस्मादुत्तमं प्रभणन्ति मोक्षम् । अण्णइं अन्येन धर्मार्थकामादिना जेण येन कारणेन ण सोक्खु नास्ति परमसुखम् इति । तद्यथा-धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते अर्थशब्देन तु पुण्यफलभूतार्थों राज्यादिविभूतिविशेषः, कामशब्देन तु तस्यैव राज्यस्य मुख्यफलभूतः स्त्रीवस्त्रगन्ध[जिनभाषितं] जिनेश्वरदेवके कहे अनुसार [त्वं] तू [निशृणु] निश्चयकर सुन, [येन] जिससे कि [ भेदं] भेद [विजानासि] अच्छी तरह जान जावे ।। भावार्थ-श्रीयोगींद्रदेव गुरु शिष्यसे कहते हैं कि हे प्रभाकरभट्ट, योगी शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष, केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयका प्रगटपना स्वरूप मोक्षफल, और निश्चय व्यवहाररत्नत्रयरूप मोक्षका मार्ग, इन तीनोंको क्रमसे जिनआज्ञाप्रमाण तुझको कहूँगा । उनको तू अच्छी तरह चित्तमें धारण कर, जिससे सब भेद मालूम हो जावेगा ॥२॥ ____ अब धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारोंमेंसे सुखका मूलकारण मोक्ष ही सबसे उत्तम है, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर इस गाथा सूत्रको कहते हैं-[जीव] हे जीव, [धर्मस्य] धर्म [अर्थस्य] अर्थ [कामस्य अपि] और काम [एतेषां सकलानां] इन सब पुरुषार्थों से [मोक्षं उत्तमं] मोक्षको उत्तम [ज्ञानिनः] ज्ञानी पुरुष [प्रभणंति] कहते हैं, [येन] क्योंकि [अन्येन] अन्य धर्म अर्थ कामादि पदार्थोंमें [सुखं] परमसुख [न] नहीं है । भावार्थ-धर्म शब्दसे यहाँ पुण्य समझना, अर्थ शब्दसे पुण्यका फल राज्य वगैरह संपदा जानना, और काम शब्दसे उस राज्यका मुख्यफल स्त्री कपडे सुगंधितमाला आदि वस्तुरूप भोग जानना । इन तीनोंसे परमसुख नहीं हैं, क्लेशरूप दुःख ही है इसलिये इन सबसे उत्तम मोक्षको ही वीतरागसर्वज्ञदेव कहते हैं, क्योंकि मोक्षसे जुदा जो धर्म अर्थ काम हैं, वे आकुलताके उत्पन्न करनेवाले हैं, तथा वीतराग परमानन्दसुखरूप अमृतरसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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