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________________ १०२ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० १, दोहा १०९दृश्यते जाणिज्जइ ज्ञायते तेन पुरुषेण तेन कारणेन वा सोइ स एव शुद्धात्मा । केन कारन । बंभु मुणेविणु जेण लहु येन पुरुषेण येन कारणेन वा ब्रह्मशब्दवाच्यनिर्दोषिपरमात्मानं मत्खा ज्ञात्वा पश्चात् गम्मिज्जइ परलोइ तेनैव पूर्वोक्तेन ब्रह्मस्वरूपे परिज्ञानपुरुषेण तेनैव कारणेन वा गम्यते । क । परलोके परलोकशब्दवाच्ये परमात्मतत्त्वे । किं च । योऽसौ शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण केवलज्ञानदर्शनस्वभावः परमात्मा स सर्वेषां सूक्ष्मैकेन्द्रियादिजीवानां शरीरे पृथक् पृथग्रूपेण तिष्ठति स एव परमब्रह्मा स एव परमविष्णुः स एव परमशिवः इति, व्यक्तिरूपेण पुनर्भगवानर्हन्नैव मुक्तिगतसिद्धात्मा वा परमब्रह्मा विष्णुः शिवो वा भण्यते । तेन नान्यः कोऽपि परिकल्पितः जगद्वयापी तथैवैको परमब्रह्मा शिवो वास्तीति । अयमत्रार्थः । यत्रासौ मुक्तात्मा लोकाग्रे तिष्ठति स एव ब्रह्मलोकः स एव विष्णुलोकः स एव शिवलोको नान्यः कोऽपीति भावार्थः ॥ १०९ ॥ अथ — मुणि-वर-विंद हरि-हरहं जो मणि णिवसइ देउ । परहँ जि परतरु णाणमउ सो वुम्बइ पर- लोउ ॥ ११० ॥ मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां यः मनसि निवसति देवः । परस्माद् अपि परतरः ज्ञानमयः स उच्यते परलोकः ॥ ११० ॥ मुणिवरविंदहं हरिहरहं मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां च जो मणि णिवसइ देउ पुरुषसे निश्चयसे [ स एव ] वही शुद्धात्मा [ज्ञायते ] जाना जाता है, [येन] जो पुरुष जिस कारण [ ब्रह्म मत्वा ] अपना स्वरूप जानकर [ परलोके लघु गम्यते ] परमात्मतत्त्वमें शीघ्र ही प्राप्त होता है । भावार्थ - जो कोई शुद्धात्मा अपना स्वरूप शुद्ध निश्चयनयकर शक्तिरूपसे केवलज्ञान केवलदर्शन स्वभाव है, वही वास्तवमें ( असलमें) परमेश्वर है । परमेश्वरमें और जीवमें जाति-भेद नहीं है, जब तक कर्मोंसे बँधा हुआ है, तब तक संसारमें भ्रमण करता है । सूक्ष्म बादर एकेन्द्रियादि जीवोंके शरीरमें जुदा जुदा तिष्ठता है, और जब कर्मोंसे रहित हो जाता है, तब सिद्ध कहलाता है । संसार-अवस्थामें शक्तिरूप परमात्मा है, और सिद्ध-अवस्थामें व्यक्तिरूप परमात्मा है । यही आत्मा परम ब्रह्म परमविष्णु परमशिव शक्तिरूप है, और प्रगटरूपसे भगवान अर्हंत अथवा मुक्तिको प्राप्त हुए सिद्धात्मा ही परमब्रह्मा परमविष्णु परमशिव कहे जाते हैं यह निश्चयसे जानो । ऐसा कहनेसे अन्य कोई भी कल्पना किया हुआ जगतमें व्यापक परमब्रह्म परमविष्णु परमशिव नहीं । सारांश यह है कि जिस लोकके शिखरपर अनंत सिद्ध विराज रहे हैं, वही लोकका शिखर परमधाम ब्रह्मलोक वही विष्णुलोक और वही शिवलोक है, अन्य कोई भी ब्रह्मलोक विष्णुलोक शिवलोक नहीं है । ये सब निर्वाण क्षेत्रके नाम हैं, और ब्रह्मा विष्णु शिव ये सब सिद्धपरमेष्ठी नाम हैं | भगवान तो व्यक्तिरूप परमात्मा हैं, तथा यह जीव शक्तिरूप परमात्मा है । इसमें संदेह नहीं है । जितने भगवानके नाम हैं, उतने सब शक्तिरूप इस जीवके नाम हैं । यह जीव ही शुद्ध नयकर भगवान हैं ||१०९ ॥ आगे ऐसा कहते हैं कि भगवानका ही नाम परलोक है - [यः ] जो आत्मदेव [ मुनिवरवृंदानां For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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