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-दोहा १०६ ]
परमात्मप्रकाशः यः स पुरुष एव ज्ञानादभिन्नताज् ज्ञानं भण्यत इति । अत्रायमेव निश्चयनयेन पञ्चज्ञानाभिन्नमात्मानं जानात्यसौ ध्याता तमेवोपादेयं जानीहीति भावार्थः । तथा चोक्तम्-"आभिणिमुदोहिमणकेवलं च तं होदि एगमेव पदं । सो एसो परमट्ठो लहिंदु णिव्वुदि लहदि ॥"॥१०५॥ अथ
अप्पहँ जे वि विभिण्ण वढ ते वि हवंति ण णाणु । ते तुहुँ तिणि वि परिहरिवि णियमि अप्पु वियाणु ॥ १०६ ॥ आत्मनः ये अपि विभिन्नाः वत्स तेऽपि भवन्ति न ज्ञानम् ।
तान् त्वं त्रीण्यपि परिहत्य नियमेन आत्मानं विजानीहि ॥ १०६ ॥ अप्पहं जे वि विभिण्ण वढ आत्मनः सकाशाद्येऽपि भिन्नाः वत्स ते वि हवंति ण णाणु तेऽपि भवन्ति न ज्ञानं, तेन कारणेन तुडं तिणि वि परिहरिवि तान् कर्मतापनान् तत्र हे प्रभाकरभट्ट त्रीण्यपि परिहत्य । पश्चात्किं कुरु । णियर्मि अप्पु वियाणु निश्चयेनात्मानं विजानीहीति । तद्यथा । सकलविशदेकज्ञानस्वरूपात् परमात्मपदार्थात् निश्चयनयेन भिनं त्रीण्यपि धर्मार्थकामान् त्यक्ता वीतरागस्वसंवेदनलक्षणे शुद्धात्मानुभूतिज्ञाने स्थिखात्मानं जानीहीति भावार्थः ॥ १०६॥
अप्पा णाणहँ गम्मु पर णाणु वियाणइ जेण ।
तिणि वि मिल्लिवि जाणि तुहुँ अप्पा णाणें तेण ॥ १०७ ॥ आत्मा ही ज्ञान है । यहाँ सारांश यह है, कि निश्चयनयकरके पाँच प्रकारके ज्ञानोंसे अभिन्न अपने आत्माको जो ध्यानी जानता है, उसी आत्माको तू उपादेय जान । ऐसा ही सिद्धांतोंमें हरएक जगह कहा है-“आभिणि" इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि मति श्रुत अवधि मनःपर्यय केवलज्ञान ये पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञान एक आत्माके ही स्वरूप हैं, आत्माके विना ये ज्ञान नहीं हो सकते, वह आत्मा ही परम अर्थ है, जिसको पाकर यह जीव निर्वाणको पाता है ।।१०५॥ __ आगे परभावका निषेध करते हैं-वत्स] हे शिष्य, [आत्मनः] आत्मासे [ये अपि भिन्नाः] जो जुदे भाव हैं, [तेऽपि] वे भी [ज्ञानं न भवंति] ज्ञान नहीं हैं, वे सब भाव ज्ञानसे रहित जडरूप हैं, [तान्] उन [त्रीणि अपि] धर्म अर्थ कामरूप तीनों भावोंको [परिहत्य] छोडकर [नियमेन] निश्चयसे [आत्मानं] आत्माको [त्वं] तू [विजानीहि] जान ॥ भावार्थ-हे प्रभाकरभट्ट, मुनिरूप धर्म, अर्थरूप संसारके प्रयोजन, काम (विषयाभिलाषा) ये तीनों ही आत्मासे भिन्न हैं, ज्ञानरूप नहीं हैं । निश्चयनयकरके सब तरहसे निर्मल केवलज्ञानस्वरूप परमात्मपदार्थसे भिन्न तीनों ही धर्म अर्थ काम पुरुषार्थों को छोडकर वीतरागस्वसंवेदनस्वरूप शुद्धात्मानुभवरूपज्ञानमें रहकर आत्माको जान ।।१०६॥
आगे आत्माका स्वरूप दिखलाते हैं-[आत्मा] आत्मा [परः] नियमसे [ज्ञानस्य] ज्ञानके [गम्यः] गोचर है, [येन] क्योंकि [ज्ञानं] ज्ञान ही [विजानाति] आत्माको जानता है, [तेन]
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