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________________ ९८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा १०५किमन्येन रागादिमवर्धकेन विकल्पजालेनेति । अत्र येनैव ज्ञानेन मिथ्यालरागादिविकल्परहितेन निजशुद्धात्मसंवित्तिरूपेणान्तर्मुहूर्तेनैव परमात्मस्वरूपं ज्ञायते तदेवोपादेयमिति तात्पर्यार्थः ॥१०४॥ अत ऊवं सूत्रचतुष्टयेन ज्ञानस्वरूपं प्रकाशयति अप्पा णाणु मुणेहि तुहुँ जो जाणइ अप्पाणु । जीव-पएसहि तित्तिडउ णाणे गयण-पवाणु ॥ १०५॥ आत्मानं ज्ञानं मन्यस्व त्वं यः जानाति आत्मानम् । जीवप्रदेशैः तावन्मानं ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ॥ १०५ ॥ अप्पा णाणु मुणेहि तुहुं प्रभाकरभट्ट आत्मानं ज्ञानं मन्यख खम् । यः किं करोति। जो जाणइ अप्पाणु यः कर्ता जानाति । कम् । आत्मानम् । किविशिष्टम् । जीवपएसहिं तित्तिडउ जीवप्रदेशैस्तावन्मानं लोकमात्रप्रदेशम् । अथवा पाठान्तरम् । 'जीवपएसहिं देहसमु' तस्यार्थों निश्चयेन लोकमात्रप्रदेशोऽपि व्यवहारेणैव संहारविस्तारधर्मखादेहमात्रः । पुनरपि कथंभूतम् आत्मानं णाणे गयणपवाणु ज्ञानेन कला व्यवहारेण गगनमाजानीहि इति । तद्यथा। निश्चयनयेन मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानपञ्चकादभिन्न व्यवहारेण ज्ञानापेक्षया रूपावलोकनविषये दृष्टिवल्लोकालोकव्यापकं निश्चयेन लोकमात्रासंख्येयप्रदेशमपि व्यवहारेण स्वदेहमात्रतमित्थंभूतमात्मानम् आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञास्वरूपप्रभृतिसमस्तविकल्पकल्लोलजालं त्यक्खा जानाति रहित तथा निज शुद्ध आत्मानुभवरूप जिस ज्ञानसे अंतर्मुहूर्तमें ही परमात्माका स्वरूप जाना जाता है, वही ज्ञान उपादेय है । ऐसी प्रार्थना शिष्यने श्रीगुरुसे की हैं ॥१०४॥ ___ आगे श्रीगुरु चार दोहा-सूत्रोंसे ज्ञानका स्वरूप प्रकाशते हैं-श्रीगुरु कहते हैं, कि हे प्रभाकरभट्ट, [त्वं] तू [आत्मानं] आत्माको ही [ज्ञानं] ज्ञान [मन्यस्व] जान, [यः] जो ज्ञानरूप आत्मा [आत्मानं] अपनेको [जीवप्रदेशः तावन्मात्रं] अपने प्रदेशोंसे लोक प्रमाण [ज्ञानेन गगनप्रमाणं] ज्ञानसे व्यवहारनयकर आकाश-प्रमाण [जानाति] जानता है । अथवा यहाँ 'देहसमु' ऐसा भी पाठ है, तब ऐसा समझना कि निश्चयनयसे लोकप्रमाण है, तो भी व्यवहारनयसे संकोच विस्तार स्वभाव होनेसे शरीरप्रमाण है ॥ भावार्थ-निश्चयनयकर मति श्रुत अवधि मनःपर्यय केवल इन पाँच ज्ञानोंसे अभिन्न तथा व्यवहारनयसे ज्ञानकी अपेक्षारूप देखनेमें नेत्रोंकी तरह लोक अलोकमें व्यापक है । अर्थात् जैसे आँखें रूपी पदार्थोंको देखती हैं, परन्तु उन स्वरूप नहीं होती, वैसे ही आत्मा यद्यपि लोक अलोकको जानता है, देखता है, तो भी उन स्वरूप नहीं होता, अपने स्वरूप ही रहता है, ज्ञानकर ज्ञेय प्रमाण है, यद्यपि निश्चयसे प्रदेशोंकर लोक प्रमाण है, असंख्यात प्रदेशी है, तो भी व्यवहारनयकर अपने देह प्रमाण है । ऐसे आत्माको जो पुरुष आहार भय मैथुन परिग्रहरूप चार वांछाओं स्वरूप आदि समस्त विकल्पकी तरंगोंको छोडकर जानता है, वही पुरुष ज्ञानसे अभिन्न होनेसे ज्ञान कहा जाता है । आत्मा और ज्ञानमें भेद नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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