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________________ -दोहा ८५ ] परमात्मप्रकाशः मुखहेतून मत्वा रमते । स कः। मिच्छाइट्ठिउ जीवडउ मिथ्याष्टिीवः । इत्यु ण काई करेइ अत्र जगति योऽसौ दुःखरूपविषयान् निश्चयनयेन सुखरूपान् मन्यते स मिथ्यादृष्टिः किमकृत्यं पापं न करोति, अपि तु सर्व करोत्येवेति । अत्र तात्पर्यम् । मिथ्यादृष्टिजीवो वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पअपरमानन्दपरमसमरसीभावरूपमुखरसापेक्षया निश्चयेन दुःखरूपानपि विषयान मुखहेतून मला अनुभवतीत्यर्थः ॥ ८४ ॥ एवं विविधात्मप्रतिपादकमयममहाधिकारमध्ये 'जिउ मिच्छत्ते' इत्यादिस्त्राष्टकेन मिथ्यादृष्टिपरिणतिव्याख्यानस्थलं समातम् ॥ तदनन्तरं सम्यग्दृष्टिभावनाव्याख्यानमुख्यत्वेन 'कालु लहेविणु' इत्यादि सूत्राष्टकं कथ्यते। अथ कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोहु गलेइ। तिमु तिमु दसणु लहइ जिउ णियमे अप्पु मुणेइ ॥ ८५॥ कालं लब्ध्वा योगिन् यथा यथा मोहः गलति । तथा तथा दर्शनं लभते जीवः नियमेन आत्मानं मनुते ॥ ८५ ॥ कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोहु गलेह कालं लब्ध्वा हे योगिन् यथा यथा मोहो विगलति तिमु तिमु दसणु लहइ जिउ तथा तथा दर्शनं सम्यक्तं लभते जीवः । तदनन्तरं किं करोति । णियमें अप्पु मुणेइ नियमेनात्मानं मनुते जानातीत्यर्थः । तथाहिएकेन्द्रियविकलेन्द्रियपश्चेन्द्रियसंक्षिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलशुद्धात्मोपदेशादीनामुत्तरोत्तरदुर्लभक्रमेण दुम्माता काललब्धिः, कयंचिकाकतालीयन्यायेन तां लध्वा परमागमकथितमार्गेण मिथ्यावाद [रमते] रमण करता है, वह [मिथ्यादृष्टिः जीवः] मिथ्यादृष्टि जीव [अत्र] इस संसारमें [किं न करोति] क्या पाप नहीं करता ? सभी पाप करता है, अर्थात् जीवोंकी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरेका धन हरता है, दूसरेकी स्त्री सेवन करता है, अति तृष्णा करता है, बहुत आरंभ करता है, खेती करता है, खोटे खोटे व्यसन सेवता है, जो न करनेके काम हैं उनको भी करता है । भावार्थ-मिथ्यादृष्टि जीव वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिसे उत्पन्न परमानंद परमसमरसीभावरूप सुखसे पराङ्मुख हुआ निश्चयकर महा दुःखरूप विषयोंको सुखके कारण समझकर सेवन करता है, सो इनमें सुख नहीं हैं ॥८४॥ इस प्रकार तीन तरहके आत्माको कहनेवाले पहले महा अधिकारमें "जिउ मिच्छत्तें" इत्यादि आठ दोहोंमेंसे मिथ्यादृष्टिकी परिणतिका व्याख्यान समाप्त किया । इसके आगे सम्यग्दृष्टिकी भावनाके व्याख्यानकी मुख्यतासे “काल लहेविणु" इत्यादि आठ दोहा सूत्र कहते हैं-योगिन्] हे योगी, [कालं लब्ध्वा] काल पाकर [यथा यथा] जैसा जैसा [मोहः] मोह [गलति] गलता है कम होता जाता है, [तथा तथा] वैसा वैसा [जीवः] यह जीव [दर्शनं] सम्यग्दर्शनको [लभते] पाता है, फिर [नियमेन] निश्चयसे [आत्मानं] अपने स्वरूपको [मनुते] जानता है ॥ भावार्थएकेंद्रियसे विकलत्रय (दोइंद्री तेइंद्री चोइंद्री) होना दुर्लभ है, विकलत्रयसे पंचेंद्री, पंचेंद्रीसे सैनी पर्याप्त, पर०१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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