________________
योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ८४जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु । माया-जालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु ॥ ८३ ॥ जननी जननः अपि कान्ता गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यम् ।
मायाजालमपि आत्मीयं मूढः मन्यते सर्वम् ॥ ८३ ॥ जणणी जणणु वि कंत घर पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु जननी माता जननः पितापि कान्ता भार्या गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यं सुवर्णादि यत्तत्सर्वं मायाजालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु मायाजालमप्यसत्यमपि कृत्रिममपि आत्मीयं स्वकीयं मन्यते । कोऽसौ । मूढो मूढात्मा। कतिसंख्योपेतमपि । सर्वमपीति । अयमत्र भावार्थः । जनन्यादिकं परस्वरूपमपि शुद्धात्मनो भिन्नमपि हेयस्याशेषनारकादिदुःखस्य कारणत्वाद्धेयमपि साक्षादुपादेयभूतानाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसौख्यादभिन्ने वीतरागपरमानन्दैकस्वभावे शुद्धात्मतत्त्वे योजयति । स कः। मनोवचनकायव्यापारपरिणतः स्वशुद्धात्मद्रव्यभावनाशून्यो मूढात्मेति ॥ ८३॥ अथ
दुक्ख] कारणि जे विसय ते सुह-हेउ रमेह । मिच्छाइटिउ जीवडउ इत्थु ण काइँ करेइ ।। ८४॥ दुःखस्य कारणं ये विषयाः तान् सुखहेतून् रमते ।
मिथ्यादृष्टिः जीवः अत्र न किं करोति ॥ ८४ ॥ दुक्खहं कारणि जे विसय ते मुहहेउ रमेइ दुःखस्य कारणं ये विषयास्तान् विषयान् __ आगे फिर मूढके लक्षण कहते हैं- जननी] माता [जननः] पिता [अपि] और [कांता] स्त्री [गृहं] घर [पुत्रः अपि] और बेटा बेटी [मित्रमपि] मित्र वगैरह सब कुटुम्बीजन बहिन भानजी नाना मामा भाई बंधु और [द्रव्यं] रत्न माणिक मोती सुवर्ण चांदी धन धान्य, द्विपद-बांदी धाय नौकर, चौपाये-गाय, बैल, घोडा, घोडी, ऊँट, हाथी, रथ, पालकी, वहली, ये [सर्व] सर्व [मायाजालमपि] असत्य हैं, कर्मजनित हैं, तो भी [मूढः] अज्ञानी जीव [आत्मीयं] अपने [मन्यते] मानता है ॥ भावार्थ-ये माता पिता आदि सब कुटुम्बीजन परस्वरूप भी हैं, सब स्वारथके हैं, शुद्धात्मासे भिन्न भी हैं, शरीर संबंधी हैं, हेयरूप सांसारिक नारकादि दुखोंके कारण होनेसे त्याज्य भी हैं, उनको जो जीव साक्षात् उपादेयरूप अनाकुलतास्वरूप पारमार्थिक सुखसे अभिन्न वीतराग परमानंदरूप एकस्वभाववाले शुद्धात्मद्रव्यमें लगाता है, अर्थात् अपने मानता है, वह मन वचन कायरूप परिणत हुआ शुद्ध अपने आत्मद्रव्यकी भावनासे शून्य (रहित) मूढात्मा है ऐसा जानो, अर्थात् अतींद्रियसुखरूप आत्मामें परवस्तुका क्या प्रयोजन हैं ? जो परवस्तुको अपना मानता है, वही मूर्ख है ॥८३॥ __ अब और भी मूढका लक्षण कहते हैं-दुःखस्य] दुःखके [कारणं] कारण [ये] जो [विषयाः] पाँच इन्द्रियोंके विषय हैं, [तान्] उनको [सुखहेतुन्] सुखके कारण जानकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org