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________________ -दोहा ४४] परमात्मप्रकाशः तीति भावार्थः॥ ४२ ॥ अथोत्पादव्ययपर्यायार्थिकनयेन संयुक्तोऽपि यः द्रव्यार्थिकनयेन उत्पादव्ययरहितः स एव परमात्मा निर्विकल्पसमाधिबलेन जिनवरैर्दैहेऽपि दृष्ट इति निरूपयति भावाभावहिं संजुवउ भावाभावहिं जो जि । देहि जि दिउ जिणवरहिं मुणि परमप्पउ सो जि ॥४३॥ भावाभावाभ्यां संयुक्तः भावाभावाभ्यां य एव । देहे एव दृष्टः जिनवरैः मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥ ४३॥ भावाभावाभ्यां संयुक्तः पर्यायाथिकनयेनोत्पादव्ययाभ्यां परिणतः द्रव्याथिकनयेन भावाभावयोः रहितः य एव वीतरागनिर्विकल्पसदानन्दैकसमाधिना तद्भवमोक्षसाधकाराधनासमर्थन जिनवरैर्देहेऽपि दृष्टः तमेव परमात्मानं मन्यस्व जानीहि वीतरागपरमसमाधिबलेनानुभवेत्यर्थः। अत्र य एव परमात्मा कृष्णनीलकापोतलेश्यास्वरूपादिसमस्तविभावरहितेन शुद्धात्मोपलब्धिध्यानेन जिनवरैर्देहेऽपि दृष्टः स एव साक्षादुपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥ ४३॥ अथ येन देहे वसता पञ्चेन्द्रियग्रामो वसति गतेनोद्वसो भवति स एव परमात्मा भवतीति कथयति देहि वसते जेण पर इंदिय-गामु वसेइ । उव्वसु होइ गएण फुड सो परमप्पु हवेइ ॥४४॥ देहे वसता येन परं इन्द्रियग्रामः वसति । उद्वसो भवति गतेन स्फुटं स परमात्मा भवति ॥ ४४ ॥ आगे यद्यपि पर्यायार्थिकनयकर उत्पादव्ययकर सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयकर उत्पादव्यय रहित है, सदा ध्रुव (अविनाशी) ही है, वही परमात्मा निर्विकल्प समाधिके बलसे तीर्थंकरदेवोंने देहमें भी देख लिया है, ऐसा कहते हैं-[य एव] जो [भावाभावाभ्यां] व्यवहारनयकर यद्यपि उत्पाद और व्ययकर [संयुक्तः] सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयसे [भावाभावाभ्यां] उत्पाद और विनाशसे [ 'रहितः'] रहित हैं, तथा [जिनवरैः] वीतराग-निर्विकल्प आनंदरूप-समाधिकर तद्भव मोक्षके साधक जिनवरदेवने [देहे अपि] देहमें भी [दृष्टः] देख लिया है, [तमेव] उसीको तू [परमात्मानं] परमात्मा [मन्यस्व] जान, अर्थात् वीतराग परमसमाधिके बलसे अनुभव करें । भावार्थ-जो परमात्मा कृष्ण, नील, कापोत लेश्यारूप विभाव परिणामोंसे रहित शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप ध्यानकर जिनवरदेवने देहमें देखा है, वही साक्षात् उपादेय है ॥४३॥ आगे देहमें जिसके रहनेसे पाँच इंद्रियरूप गाँव बसता है, और जिसके निकलनेसे पंचेन्द्रियरूप ग्राम उजड हो जाता है, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं-[येन परं देहे वसता] जिसके केवल देहमें रहनेसे [इन्द्रियग्रामः] इन्द्रिय गाँव [वसति] रहता है, [गतेन] और जिसके परभवमें चले जानेपर [उद्वसः स्फुटं भवति] ऊजड निश्चयसे हो जाता है [स परमात्मा] वह परमात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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