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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ४२देहे वसन्तमपि हरिहरा अपि यम् अद्यापि न जानन्ति । परमसमाधितपसा विना तं परमात्मानं भणन्ति ॥ ४२ ॥ परमात्मस्वभावविलक्षणे देहे अनुपचरितासद्भतव्यवहारनयेन वसन्तमपि हरिहरा अपि यमद्यापि न जानन्ति । केन विना । वीतरागनिर्विकल्पनित्यानन्दैकसुखामृतरसास्वादरूपपरमसमाधितपसा । तं परमात्मानं भणन्ति वीतरागसर्वज्ञा इति । किं च । पूर्वभवे कोऽपि जीवो भेदाभेदरत्नत्रयाराधनां कृखा विशिष्टपुण्यबन्धं च कृता पश्चादज्ञानभावेन निदानबन्धं करोति तदनन्तरं स्वर्ग गखा पुनर्मनुष्यो भूत्वा त्रिखण्डाधिपतिर्वासुदेवो भवति । अन्यः कोऽपि जिनदीक्षां गृहीलान्यत्रैव भवे विशिष्टसमाधिबलेन पुण्यबन्धं कृता पश्चात्पूर्वकृतचारित्रमोहोदयेन विषयासक्तो भूखा रुद्रो भवति । कथं ते परमात्मस्वरूपं न जानन्ति इति पूर्वपक्षः। तत्र परिहारं ददाति । युक्तमुक्तं भवता, यद्यपि रत्नत्रयाराधनां कृतवन्तस्तथापि यादृशेन वीतरागनिर्विकल्परत्नत्रयस्वरूपेण तद्भवे मोक्षो भवति तादृशं न जानन्तीति । अत्र यमेव शुद्धात्मानं साक्षादुपादेयभूतं तद्भवमोक्षसाधकाराधनासमर्थं च ते हरिहरादयो न जानन्तीति स एवोपादेयो भवशरीरमें [वसंतमपि] अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर बसता है, तो भी [यं] जिसको [हरिहरा अपि] हरिहर सरीखे चतुर पुरुष [अद्यअपि] अब तक भी [न जानंति] नहीं जानते हैं । किसके बिना ? [परमसमाधितपसा विना] वीतरागनिर्विकल्प नित्यानंद अद्वितीय सुखरूप अमृतके रसके आस्वादरूप परमसमाधिभूत महातपके विना नहीं जानते, [तं] उसको [परमात्मानं] परमात्मा [भणंति] कहते हैं । यहाँ किसीका प्रश्न है, कि पूर्वभवमें कोई जीव जिनदीक्षा धारणकर व्यवहार निश्चयरूप रत्नत्रयकी आराधनाकर महान् पुण्यको उपार्जन करके अज्ञानभावसे निदानबंध करनेके बाद स्वर्गमें उत्पन्न होता है, पीछे आकर मनुष्य होता है, वही तीन खंडका स्वामी वासुदेव (हरि) कहलाता है, और कोई जीव इसी भवमें जिनदीक्षा लेकर समाधिके बलसे पुण्यबंध करता है, उसके बाद पूर्वकृत चारित्रमोहके उदयसे विषयोंसे लीन हुआ रुद्र (हर) कहलाता है । इसलिये वे हरिहरादिक परमात्माका स्वरूप कैसे नहीं जानते ? इसका समाधान यह है, कि तुम्हारा कहना ठीक है । यद्यपि इन हरिहरादिक महान् पुरुषोंने रत्नत्रयकी आराधना की, तो भी जिस तरहके वीतराग-निर्विकल्प-रत्नत्रयस्वरूपसे तद्भव मोक्ष होता है, वैसा रत्नत्रय इनके नहीं प्रगट हुआ, सरागरत्नत्रय हुआ है, इसीका नाम व्यवहाररत्नत्रय है । सो यह तो हुआ, लेकिन शुद्धोपयोगरूप वीतरागरत्नत्रय नहीं हुआ, इसलिये वीतरागरत्नत्रयके धारक उसी भवसे मोक्ष जानेवाले योगी जैसा जानते हैं, वैसा ये हरिहरादिक नहीं जानते । इसीलिये परम शुद्धोपयोगियोंकी अपेक्षा इनको नहीं जाननेवाले कहा गया है, क्योंकि जैसे स्वरूपके जाननेसे साक्षात् मोक्ष होता है, वैसा स्वरूप ये नहीं जानते । यहाँपर सारांश यह है, कि जिस साक्षात् उपादेय शुद्धात्माको तद्भव मोक्षके साधक महामुनि ही आराध सकते हैं, और हरिहरादिक नहीं जान सकते, वही चिंतवन करने योग्य है ॥४२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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