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२८ योगीन्दुदेवविरचितः
[ दोहा २३___ अथ वेदशास्त्रेन्द्रियादिपरद्रव्यालम्बनाविषयं च वीतरागनिर्विकल्पसमाधिविषयं च परमात्मानं प्रतिपादयन्ति
वेयहिं सत्थहिँ इंदियहिँ जो जिय मुणहु ण जाइ । णिम्मल-झाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ।। २३ ।। वेदैः शास्त्रैरिन्द्रियैः यो जीव मन्तुं न याति ।
निर्मलध्यानस्य यो विषयः स परमात्मा अनादिः ॥२३॥ वेदशास्नेन्द्रियैः कृत्वा योऽसौ मन्तुं ज्ञातुं न याति । पुनश्च कथंभूतो यः। मिथ्याविरतिप्रमादकषाययोगाभिधानपञ्चप्रत्ययरहितस्य निर्मलस्य स्वशुद्धात्मसंवित्तिसंजातनित्यानन्दैकसुखामृतास्वादपरिणतस्य ध्यानस्य विषयः । पुनरपि कथंभूतो यः। अनादिः स परमात्मा भवतीति हे जीव जानीहि । तथा चोक्तम्-"अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रपाण्डित्यमन्यथा। अन्यथा परमं तत्वं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा।।" अत्रार्थभूत एवं शुद्धात्मोपादेयो अन्यद्धेयमिति भावार्थः॥२३॥
अथ योऽसौ वेदादिविषयो न भवति परमात्मा समाधिविषयो भवति पुनरपि तस्यैव
आगे वेद, शास्त्र, इंद्रियादि परद्रव्योंके अगोचर और वीतरागनिर्विकल्प समाधिके गोचर (प्रत्यक्ष) ऐसे परमात्माका स्वरूप कहते हैं-[वेदैः] केवलीकी दिव्यवाणीसे [शास्त्रैः] महामुनियोंके वचनोंसे तथा [इंद्रियैः] इंद्रिय और मनसे भी [यः] जो शुद्धात्मा [मंतुं] जाना [न याति] नहीं जाता है, अर्थात् वेद, शास्त्र, ये दोनों शब्द अर्थस्वरूप हैं, आत्मा शब्दातीत है, तथा इंद्रिय, मन विकल्परूप है, और मूर्तिक पदार्थको जानते हैं, वह आत्मा निर्विकल्प है, अमूर्तिक है, इसलिये इन तीनोंसे नहीं जान सकते । [यः] जो आत्मा [निर्मलध्यानस्य] निर्मल ध्यानके [विषयः] गम्य है, [सः] वही [अनादिः] आदि अंत रहित [परमात्मा] परमात्मा है, अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, इन पाँच आस्रवोंसे रहित निर्मल निज शुद्धात्माके ज्ञानकर उत्पन्न हुए नित्यानंद सुखामृतका आस्वाद उस स्वरूप परिणत निर्विकल्प अपने स्वरूपके ध्यानकर स्वरूपकी प्राप्ति है । आत्मा ध्यानगम्य ही है, शास्त्रगम्य नहीं है, क्योंकि जिनको शास्त्र सुननेसे ध्यानकी सिद्धि हो जावे, वे ही आत्माका अनुभव कर सकते हैं, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यानसे ही पाया है, और शास्त्र सुनना तो ध्यानका उपाय है, ऐसा समझकर अनादि अनंत चिद्रूपमें अपना परिणाम लगाओ । दूसरी जगह भी ‘अन्यथा' इत्यादि कहा है । उसका यह भावार्थ है, कि वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही हैं, नय प्रमाणरूप है, तथा ज्ञानकी पंडिताई कुछ और ही है, वह आत्मा निर्विकल्प है, नय प्रमाण निक्षेपसे रहित है, वह परमतत्त्व तो केवल आनन्दरूप है, और ये लोक अन्य ही मार्गमें लगे हुए हैं, सो वृथा क्लेश कर रहे हैं । इस जगह अर्थरूप शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य हैं, यह सारांश समझना ।।२३।।
आगे कहते हैं, कि जो परमात्मा वेदशास्त्रगम्य तथा इन्द्रियगम्य नहीं, केवल परमसमाधिरूप निर्विकल्पध्यानकर ही गम्य है, इसलिये उसीका स्वरूप फिर कहते हैं-[यः] जो [केवलदर्शन
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