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________________ -दोहा २२ ] परमात्मप्रकाशः भावार्थः ॥ १९-२१॥ ___ अथ धारणाध्येययन्त्रमन्त्रमण्डलमुद्रादिकं व्यवहारध्यानविषयं मन्त्रवादशास्त्रकथितं यत्तभिर्दोषपरमात्माराधनाध्याने निषेधयन्ति जासु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु । जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु ।। २२ ।। यस्य न धारणा ध्येयं नापि यस्य न यन्त्रं न मन्त्रः ।। यस्य न मण्डलं मुद्रा नापि तं मन्यस्व देवमनन्तम् ॥ २२ ॥ यस्य परमात्मनो नास्ति न विद्यते। किं किम् । कुम्भकरेचकपूरकसंज्ञावायुधारणादिकमतिमादिकं ध्येयमिति । पुनरपि किं तस्य । अक्षररचनाविन्यासरूपस्तम्भनमोहनादिविषयं यन्त्रस्वरूपं विविधाक्षरोच्चारणरूपं मन्त्रस्वरूपं च अपमण्डलवायुमण्डलपृथ्वीमण्डलादिकंगारुडमुद्राज्ञानमुद्रादिकं च यस्य नास्ति तं परमात्मानं देवमाराध्यं द्रव्याथिकनयेनान्तमविनश्वरमनन्तज्ञानादिगुणस्वभावं च मन्यस्व जानीहि । अतीन्द्रियमुखास्वादविपरीतस्य जिह्वेन्द्रियविषयस्य निर्मोहशुद्धात्मस्वभावप्रतिकूलस्य मोहस्य वीतरागसहजानन्दपरमसमरसीभावमुखरसानुभवप्रतिपक्षस्य नवप्रकाराब्रह्मव्रतस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिघातस्य मनोगतसंकल्पविकल्पजालस्य च विजयं कृत्वा हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मानमनुभवेत्यर्थः। तथा चोक्तम्-"अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभं च । गुत्तीसु य मणगुत्ती चउरो दुक्खेहि सिझंति ॥"॥ २२ ॥ कहे गये हैं, उन सबका निर्दोष परमात्माकी आराधनारूप ध्यानमें निषेध किया है-[यस्य] जिस परमात्माके [धारणा न] कुंभक, पूरक, रेचक नामवाली वायुधारणादिक नहीं है, [ध्येयं नापि] प्रतिमा वगैरह ध्यान करने योग्य पदार्थ भी नहीं है, [यस्य] जिसके [यंत्रं न] अक्षरोंकी रचनारूप स्तंभन मोहनादि विषयक यंत्र नहीं है, [मंत्रः न] अनेक तरहके अक्षरोंके बोलनेरूप मंत्र नहीं है, [यस्य] और जिसके [मंडलं न] जलमंडल, वायुमंडल, अग्निमंडल, पृथ्वीमंडलादिक पवनके भेद नहीं है, [मुद्रा न] गारुडमुद्रा, ज्ञानमुद्रा वगैरह मुद्रा नहीं है, [तं] उसे [अनंतं] द्रव्यार्थिकनयसे अविनाशी तथा अनंत ज्ञानादिगुणरूप [देवं मन्यस्व] परमात्मदेव जानो ॥ भावार्थ-अतीन्द्रिय आत्मिक सुखके आस्वादसे विपरीत जिह्वाइंद्रियके विषय (रस) को जीतकर निर्मोह शुद्ध स्वभावसे विपरीत मोहभावको छोडकर और वीतराग सहज आनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रसके अनुभवका शत्रु जो नौ तरहका कुशील उसको तथा निर्विकल्पसमाधिके घातक मनके संकल्प विकल्पोंको त्यागकर हे प्रभाकरभट्ट, तू शुद्धात्माका अनुभव कर । ऐसा ही दूसरी जगह भी कहा है-“अक्खाणेति''इसका आशय इस तरह है, कि इंद्रियोंमें जीभ प्रबल होती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंमें मोह कर्म बलवान् होता है, पाँच महाव्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियोंमें मनोगुप्ति पालना कठिन है । ये चार बातें मुश्किलसे सिद्ध होती हैं ॥२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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