SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - दोहा २१ ] परमात्मप्रकाशः २५ केवलं जानाति द्रव्यार्थिकनयेन नित्य एव अथवा नित्यं सर्वकालमेव जानाति परं नियमेन । स इत्थंभूतः शिवो भवति शान्तश्च भवतीति । किं च अयमेव जीवः मुक्तावस्थायां व्यक्तिरूपेण शान्तः शिवसंज्ञां लभते संसारावस्थायां तु शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्तिरूपेणेति । तथा चोक्तम् - " परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु " । पुनश्वोक्तम् – " शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् । प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः परिकीर्तितः ।। " अन्यः कोऽप्येको जगत्कर्ता व्यापी सदा मुक्तः शान्तः शिवोऽस्तीत्येवं न । अत्रायमेव शान्तशिवसंज्ञः शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ॥ १८ ॥ अथ पूर्वोक्तं निरञ्जनस्वरूपं सूत्रत्रयेण व्यक्तीकरोति-— जासु ण वष्णु ण गंधु रसु जासु ण सद्दु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु ण वि णाउ णिरंजणु तासु ॥ १९ ॥ जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ॥ २० ॥ अस्थि पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ । अस्थि ण एक वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ॥ २१ ॥ तियलं । यस्य न वर्णों न गन्धो रसः यस्य न शब्दो न स्पर्शः । यस्य न जन्म मरणं नापि नाम निरञ्जनस्तस्य ॥ १९ ॥ यस्य न क्रोधो न मोहो मदः यस्य न माया न मानः । यस्य न स्थानं न ध्यानं जीव तमेव निरञ्जनं जानीहि ॥ २० ॥ अस्ति न पुण्यं न पापं यस्य अस्ति न हर्षो विषादः । अस्ति न एकोऽपि दोषो यस्य स एव निरञ्जनो भावः ॥ २१ ॥ त्रिकलम् | परमात्मा हैं, व्यक्तिरूपसे नहीं है । ऐसा कथन अन्य ग्रंथोंमें भी कहा है- 'शिवमित्यादि' अर्थात् परमकल्याणरूप, निर्वाणरूप, महाशांत अविनश्वर ऐसे मुक्ति पदको जिसने पा लिया है, वही शिव है, अन्य कोई, एक जगत्कर्ता सर्वव्यापी सदा मुक्त शांत, शिवरूप नैयायिकोंका तथा वैशेषिक वगैरहका माना हुआ नहीं है । यह शुद्धात्मा ही शांत है, शिव है, उपादेय है ||१८|| आगे पहले कहे हुए निरंजनस्वरूपको तीन दोहा-सूत्रोंसे प्रगट करते हैं - [ यस्य ] जिस भगवानके [वर्णः] सफेद, काला, लाल, पीला, नीलस्वरूप पाँच प्रकार वर्ण [न] नहीं हैं, [गंध:रसः] सुगंध दुर्गन्धरूप दो प्रकारकी गंध [न] नहीं है, मधुर, आम्ल (खट्ट), तिक्त, कट्टु, कषाय (क्षार) रूप पाँच रस नहीं हैं, [ यस्य ] जिसके [ शब्दाः न ] भाषा अभाषारूप शब्द नहीं है, अर्थात् सचित्त अचित्त मिश्ररूप कोई शब्द नहीं है, सात स्वर नहीं है, [स्पर्शः न ] शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मृदु, कठिनरूप आठ तरहका स्पर्श नहीं है, [ यस्य ] और जिसके [ जन्म न] जन्म जरा नहीं है [ मरणं नापि ] तथा मरण भी नहीं है [ तस्य ] उसी चिदानंद शुद्धस्वभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy