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________________ १४ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ७वायवीर्याचार इति । अयं तु व्यवहारपश्चाचारः पारंपर्येण साधक इति । विशुद्धशानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानबहिर्द्रव्येच्छानिवृत्तिरूपं तपश्चरणं स्वशक्त्यनवग्रहनवीर्यरूपाभेदपशाचाररूपात्मकं शुद्धोपयोगभावनान्तर्भूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधि स्वयमाचरन्त्यन्यानाचारयन्तीति भवन्त्याचार्यास्तानहं वन्दे । पश्चास्तिकायषड्द्र्व्यसप्ततवत्वनवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकायशुद्धजीवद्रव्यशुद्धजीवतत्त्वशुद्धजीवपदार्थसंझं स्वशुद्धात्मभावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं कथयन्ति, शुद्धात्मस्वभावसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षमार्गे च ये कथयन्ति ते भवन्त्युपाध्यायास्तानहं वन्दे । शुद्धबुद्धैकस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणतपश्चरणरूपाभेदचतुर्विधनिश्चयाराधनात्मकवीतरागनिर्विकल्पसमाधिं ये साधयन्ति ते भवन्ति साधवस्तानहं वन्दे । अत्रायमेव ते समाचरन्ति कथयन्ति साधयन्ति च वीतरागनिर्विकल्पसमाधि तमेवोपादेयभूतस्य स्वशुद्धात्मतत्त्वस्य साधकत्वादुपादेयं जानीहीति भावार्थः ॥७॥ इति प्रभाकरभहस्य पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारकरणमुख्यत्वेन प्रथममहाधिकारमध्ये दोहकसूत्रसप्तकं गतम् । प्रकार बाह्य ज्ञानाचार, पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्तिरूप व्यवहार चारित्राचार, अनशनादि बारह तपरूप तपाचार और अपनी शक्ति प्रगटकर मुनिव्रतका आचरण यह व्यवहारवीर्याचार है । यह व्यवहार पंचाचार परम्पराय मोक्षका कारण है, और निर्मल ज्ञान-दर्शनस्वभाव जो शुद्धात्मतत्त्व उसका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान, आचरण तथा परद्रव्यकी इच्छाका निरोध और निजशक्तिका प्रगट करना ऐसा यह निश्चय पंचाचार साक्षात् मुक्तिका कारण है । ऐसे निश्चय व्यवहाररूप पंचाचारोंको जो आप आचरें और दूसरोंको आचरवावें ऐसे आचार्योंको मैं वंदता हूँ । पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य, सप्त तत्त्व, नवपदार्थ हैं, उनमें निज शुद्ध जीवास्तिकाय, निजशुद्ध जीवद्रव्य, निज शुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध जीवपदार्थ, जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य सब त्यागने योग्य हैं, ऐसा उपदेश करते हैं, तथा शुद्धात्मस्वभावका सम्यक् श्रद्धान-ज्ञानआचरणरूप अभेद रत्नत्रय है, यही निश्चयमोक्षमार्ग है, ऐसा उपदेश शिष्योंको देते हैं, ऐसे उपाध्यायोंको मैं नमस्कार करता हूँ, और शुद्धज्ञान स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वकी आराधनारूप वीतराग' निर्विकल्प समाधिको जो साधते हैं, उन साधुओंको मैं वंदता हूँ। वीतराग' निर्विकल्प समाधिको जो आचरते हैं, कहते हैं, साधते हैं वे ही साधु है । अहँत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ये ही पंचपरमेष्ठी वंदने योग्य हैं, ऐसा भावार्थ है ॥७।। ऐसे पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेकी मुख्यतासे श्रीयोगींद्राचार्यने परमात्मप्रकाशके प्रथम महाधिकारमें प्रथमस्थलमें सात दोहोंसे प्रभाकरभट्ट नामक अपने शिष्यको पंचपरमेष्ठीकी भक्तिका उपदेश दिया । इति पीठिका । अब प्रभाकरभट्ट पूर्वरीतिसे पंचपरमेष्ठीको नमस्कारकर और श्रीयोगींद्रदेव गुरुको १. वे पाँचों परमेष्ठी भी जिस वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको आचरते हैं, कहते हैं और साधते हैं; तथा जो उपादेयरूप निजशुद्धात्मतत्त्वकी साधनेवाली है, ऐसी निर्विकल्प समाधिको ही उपादेय जानो । (यह अर्थ संस्कृतके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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