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________________ -दोहा ७ ] परमात्मप्रकाशः रसीभावसुखरसास्वादनिमित्तेन तिणि वि ते वि णवेवि त्रीनप्याचार्योपाध्यायसाधून नत्वा नमस्कृत्येत्यर्थः । अतो विशेषः । अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबन्धः द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं तथैवाशुद्धनिश्चयसंबन्धः मतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायरहितं च यचिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मतत्त्वं तदेव भूतार्थ परमार्थरूपसमयसारशब्दवाच्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति । चलमलिनावगाढरहितत्वेन निश्चयश्रद्धानबुद्धिः सम्यक्त्वं तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचारस्तत्रैव संशयविपर्यासानध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः सम्यग्ज्ञानं तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचारः,तत्रैव शुभाशुभसंकल्पविकल्परहितत्वेन नित्यानन्दमयसुखरसास्वादस्थिरानुभवनं च सम्यक्चारित्रं तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचारः, तत्रैव परद्रव्येच्छानिरोधेन सहजानन्दैकरूपेण प्रतपनं तपश्चरणं तत्राचरणं परिणमनं तपश्चरणाचारः, तत्रैव शुद्धात्मस्वरूपे स्वशक्त्यनवगृहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचार इति निश्चयपश्चाचाराः। निःशङ्काद्यष्टगुणभेदो बाह्यदर्शनाचारः, कालविनयाधष्टभेदो बाह्यज्ञानाचारः, पञ्चमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्तिनिर्ग्रन्थरूपो बाह्यचारित्राचारः, अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचारः, बाह्यस्वशक्त्यनवगृहनरूपो करता हूँ-ये मुनयः] जो मुनि [परमसमाधि] परमसमाधिको [धृत्वा] धारण करके सम्यग्ज्ञानकर [परमात्मानं] परमात्माको [पश्यन्ति] देखते हैं । किसलिए ? [परमानंदस्य कारणेन] रागादि विकल्प रहित परमसमाधिसे उत्पन्न हुए परम सुखके रसका अनुभव करनेके लिये [तान् अपि] उन [त्रीन् अपि] तीनों आचार्य, उपाध्याय, साधुओंको भी [नत्वा] मैं नमस्कार करके परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ । भावार्थ-अनुपचरित अर्थात् जो उपचरित नहीं है, इसीसे अनादि संबंध हैं, परंतु असद्भूत (मिथ्या) है, ऐसा व्यवहारनयकर द्रव्यकर्म, नोकर्मका संबंध होता है, उससे रहित और अशुद्ध निश्चयनयकर रागादिका संबंध है, उससे तथा मतिज्ञानादि विभावगुणके संबंधसे रहित और नर नारकादि चतुर्गतिरूप विभावपर्यायोंसे रहित ऐसा जो चिदानंदचिद्रूप एक अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है । उसीको परमार्थरूप समयसार कहना चाहिये । वही सब प्रकार आराधने योग्य है । उससे जुदी जो परवस्तु है वह सब त्याज्य है । ऐसी दृढ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अवगाढ परम श्रद्धा है उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है और उसी निजस्वरूपमें संशय-विमोह-विभ्रम-रहित जो स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहकबुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात् उसरूप परिणमन वह ज्ञानाचार है, उसी शुद्ध स्वरूपमें शुभ-अशुभ समस्त संकल्प विकल्प रहित जो नित्यानंदमय निजरसका आस्वाद, निश्चल अनुभव, वह सम्यक्चारित्र है, उसका जो आचरण, उसरूप परिणमन, वह चारित्राचार है, उसी परमानंद स्वरूपमें परद्रव्यकी इच्छाका निरोधकर सहज आनंदरूप तपश्चरणस्वरूप परिणमन वह तपश्चरणाचार है और उसी शुद्धात्मस्वरूपमें अपनी शक्तिको प्रकटकर आचरण परिणमन वह वीर्याचार है । यह निश्चय पंचाचारका लक्षण कहा । अब व्यवहारका लक्षण कहते हैं-निःशंकितको आदि लेकर अष्ट अंगरूप बाह्यदर्शनाचार, शब्द शुद्ध, अर्थ शुद्ध आदि अष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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