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________________ -दोहा १] परमात्मप्रकाशः निरञ्जनविशेषणं कृतम् । मुक्तात्मनां सुप्तावस्थावरहि यविषये परिज्ञानं नास्तीति सांख्या वदन्ति, तन्मतानुसारिशिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसर्वपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञानस्थापनार्थ ज्ञानमय-विशेषणं कृतमिति । तानित्थंभूतान् परमात्मनो नत्वा प्रणम्य नमस्कृत्येति क्रियाकारकसंबन्धः । अत्र नत्वेति शब्दरूपो वाचनिको द्रव्यनमस्कारो ग्राह्यः सद्भूतव्यवहारनयेन ज्ञातव्यः, केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारः पुनरशुद्धनिश्चयनयेनेति, शुद्धनिश्चयनयेन वन्द्यवन्दकभावो नास्तीति । एवं पदरखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः, नयविभागकथनरूपेण नयार्थों भणितः, बौद्धादिमतस्वरूपकथनमस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः, एवंगुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः। अत्र नित्यनिरञ्जनज्ञानमयरूपं परमात्मद्रव्यमुपादेयमिति भावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थों व्याख्यानकाले यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्य इति ॥ १॥ भगवान सिद्धपरमेष्ठी नित्य निरंजन ज्ञानमयी हैं । यहाँपर नित्य जो विशेषण दिया है, वह एकान्तवादी बौद्ध जो कि आत्माको नित्य नहीं मानता क्षणिक मानता है, उसके समझानेके लिये है । द्रव्यार्थिकनयकर आत्माको नित्य कहा है, टंकोत्कीर्ण अर्थात् टाँकीकासा घड्या सुघट ज्ञायक एकस्वभाव परम द्रव्य है । ऐसा निश्चय करानेके लिये नित्यपनेका निरूपण किया है । इसके बाद निरंजनपनेका कथन करते हैं । जो नैयायिकमती हैं वे ऐसा कहते हैं “सौ कल्पकाल चले जानेपर जगत शून्य हो जाता है और सब जीव उस समय मुक्त हो जाते हैं तब सदाशिवको जगतके करनेकी चिंता होती है । उसके बाद जो मुक्त हुए थे, उन सबके कर्मरूप अंजनका संयोग करके संसारमें पुनः डाल देता है", ऐसी नैयायिकोंकी श्रद्धा है । उनके सम्बोधनेके लिये निरंजनपनेका वर्णन किया कि भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप अंजनका संसर्ग सिद्धोंके कभी नहीं होता । इसीलिये सिद्धोंको निरंजन ऐसा विशेषण कहा है । अब सांख्यमती कहते हैं-“जैसे सोनेकी अवस्थामें सोते हुए पुरुषको बाह्य पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता, वैसे ही मुक्तजीवोंको बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है।" ऐसे जो सिद्धदशामें ज्ञानका अभाव मानते हैं, उनके प्रतिबोध करनेके लिये तीन जगत तीनकालवर्ती सब पदार्थोंका एक समयमें ही जानना है, अर्थात् जिसमें समस्त लोकालोकके जाननेकी शक्ति है, ऐसे ज्ञायकतारूप केवलज्ञानके स्थापन करनेके लिये सिद्धोंका ज्ञानमय विशेषण किया । वे भगवान नित्य हैं, निरंजन हैं, और ज्ञानमय हैं, ऐसे सिद्धपरमात्माओंको नमस्कार करके ग्रंथका व्याख्यान करता हूँ। यह नमस्कार शब्दरूप वचन द्रव्यनमस्कार असद्भूत व्यवहारनयसे है और केवलज्ञानादि अनंत गुणस्मरणरूप भावनमस्कार अशुद्ध निश्चयनयसे कहा जाता है । यह द्रव्यभावरूप नमस्कार व्यवहारनयकर साधक दशामें कहा है, शुद्ध निश्चयनयकर वंद्य वंदक भाव नहीं है । ऐसे पदखंडनारूप शब्दार्थ कहा और नयविभागरूप कथनकर नयार्थ भी कहा, तथा बौद्ध, नैयायिक, सांख्यादि मतके कथन करनेसे मतार्थ कहा, इस प्रकार अनंतगुणात्मक सिद्धपरमेष्ठी संसारसे मुक्त हुए है, यह सिद्धांतका अर्थ प्रसिद्ध ही है, और निरंजन ज्ञानमयी परमात्मद्रव्य आदरने योग्य है, उपादेय है, यह भावार्थ है, इसी तरह शब्द नय, मत, आगम, भावार्थ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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