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________________ योगीन्दुदेवविरचितः । " [ दोहा १तथा चोक्तं द्रव्यसंग्रहे— शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन " सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया " सर्वे जीवाः शुद्धबुद्धैकस्वभावाः । केन जाताः । ध्यानाग्निना करणभूतेन ध्यानशब्देन आगमापेक्षया वीतरागनिर्विकल्पशुक्लध्यानम्, अध्यात्मापेक्षया वीतरागनिर्विकल्परूपातीतध्यानम् । तथा चोक्तम्“ पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ॥ तच्च ध्यानं वस्तुवृत्त्या शुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसमरसीभावसुखरसास्वादरूपमिति ज्ञातव्यम् । किं कृत्वा जाताः । कर्ममलकलङ्कान् दग्ध्वा कर्ममलशब्देन द्रव्यकर्मभावकर्माणि गृह्यन्ते । पुद्गलपिण्डरूपाणि ज्ञानावरणादीन्यष्टौ द्रव्यकर्माणि, रागादिसंकल्पविकल्परूपाणि पुनर्भावकर्माणि । द्रव्यकर्मदहनमुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन, भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्वयेन शुद्धनिश्वयेन बन्धमोक्षौ न स्तः । इत्थंभूतकर्ममलकलङ्कान् दग्ध्वा कथंभूता जाता: । नित्यनिरञ्जनमानमयाः । क्षणिकैकान्तवादि सौगतमतानुसारिशिष्यं प्रति द्रव्यार्थिकनयेन नित्यटङ्कोत्कीर्णज्ञाय कैकस्वभावपरमात्मद्रव्यव्यवस्थापनार्थं नित्यविशेषणं कृतम् । अथ कल्पशते गते जगत् शून्यं भवति पश्चात्सदाशिवे जगत्करणविषये चिन्ता भवति तदनन्तरं मुक्तिगतानां जीवानां कर्माञ्जनसंयोगं कृत्वा संसारे पतनं करोतीति नैयायिका वदन्ति, तन्मतानुसारिशिष्यं प्रति भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्माञ्जननिषेधार्थं मुक्तजीवानां व्यक्तिरूप सिद्धपर्याय पानेसे हुआ । शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर सभी जीव सदा शुद्ध ही है । ऐसा ही द्रव्यसंग्रहमें कहा है, “सव्वे सुद्धाहु सुद्धणया' अर्थात् शुद्ध नयकर सभी जीव शक्तिरूप शुद्ध हैं और पर्यायार्थिकनयसे व्यक्तिकर शुद्ध हुए । किस कारणसे ? ध्यानाग्निना अर्थात् ध्यानरूपी अग्निकर कर्मरूपी कलंकोंको भस्म किया, तब सिद्ध परमात्मा हुए । वह ध्यान कौनसा है ? आगमकी अपेक्षा तो वीतराग निर्विकल्प शुक्ल ध्यान है और अध्यात्मकी अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है । तथा दूसरी जगह भी कहा है- ' पदस्थं' इत्यादि, उसका अर्थ यह है, कि णमोकारमंत्र आदिका जो ध्यान है, वह पदस्थ कहलाता है, पिंड (शरीर) में ठहरा हुआ जो निज आत्मा है, उसका चिंतवन वह पिंडस्थ है, सर्व चिद्रूप (सकल परमात्मा) जो अरहंतदेव उनका ध्यान वह रूपस्थ है, और निरंजन ( सिद्धभगवान) का ध्यान रूपातीत कहा जाता है । वस्तुके स्वभावसे विचारा जावे, तो शुद्ध आत्माका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमयी जो निर्विकल्प समाधि है, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग परमानंद समरसी भाव सुखरसका आस्वाद वही जिसका स्वरूप है, ऐसा ध्यानका लक्षण जानना चाहिये । इसी ध्यानके प्रभावसे कर्मरूपी मैल वही हुआ कलंक, उनको भस्मकर सिद्ध हुए । कर्म-कलंक अर्थात् द्रव्यकर्म भावकर्म इनमेंसे जो पुद्गलपिंडरूप ज्ञानावरणादि आठकर्म वे द्रव्यकर्म हैं, और रागादिक संकल्पविकल्परूप परिणाम भावकर्म कहे जाते हैं । यहाँ भावकर्मका दहन अशुद्धनिश्चयनयकर हुआ, तथा द्रव्यकर्मका दहन असद्भूत अनुपचरितव्यवहारनयकर हुआ और शुद्ध निश्चयकर तो जीवके बंध मोक्ष दोनों ही नहीं है । इस प्रकार कर्मरूपमलोंको भस्मकर जो भगवान हुए, वे कैसे हैं ? वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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