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________________ १३४ परमात्मप्रकाश 'झ' - पं० पन्नालालजी सोनीकी कृपासे झालरापाटनके श्री एलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन से यह प्रति प्राप्त हुई थी । इसमें केवल दोहे ही हैं । इसकी लिपि सुन्दर देवनागरी है । इसमें अशुद्धियाँ अधिक हैं । इसके कुछ खास पाठ मा० जैनग्रंथमालामें मुद्रित योगसारसे मिलते हैं । ये चार प्रतियाँ दो विभिन्न परम्पराओंको बतलाती हैं, एक परम्परामें केवल 'ब' प्रति है, और दूसरीमें ‘अ’, ‘प' और ‘झ’ । ‘अ' और 'प' का उद्गम एक ही स्थानसे हुआ जान पडता है, क्योंकि दोनोंका मूल और गुजराती अनुवाद एकसा ही है । किन्तु 'अ' प्रतिसे 'प' प्रतिके गुजराती अनुवादकी भाषा प्राचीन है । 'ब' प्रतिके विरुद्ध जो कि सबसे प्राचीन है, 'अ' और 'प' में कर्ता कारकके एकवचनमें 'अ' के स्थानमें 'उ' पाया जाता है । अनुस्वारकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं हैं, और 'अउ' के स्थानमें प्रायः 'ओ' लिखा है । योगसारका प्राकृत मूल और पाठान्तर - योगसारके सम्पादनमें परम्परागत मूलका संग्रह करनेकी ओर ही मेरा लक्ष्य रहा है । अपभ्रंश ग्रन्थका सम्पादन करनेमें, विशेषतया जब विभिन्न प्रतियोंमें स्वरभेद पाया जाता हो, लेखकोंकी अशुद्धियोंके बीचमेंसे मौलिकपाठको पृथक् करना प्रायः कठिन होता है । स्वरोंके सम्बन्धमें मैंने ‘प' और 'ब' प्रतिका ही विशेषतया अनुसरण किया है । आधुनिक प्रतियोंमें इ और ह में धोखा हो जाता है, अतः मैंने मूलमें कुछ परिवर्तन भी किये हैं, और उनके सामने प्रश्नसूचक चिह्न लगा दिये हैं । मैंने बहुतसे पाठान्तर केवल मूलके पाठ भेदोंपर काफी प्रकाश डालनेके लिये ही दिये हैं । किन्तु माणिकचन्द्रजैनग्रन्थमालामें मुद्रित योगसारके पाठान्तर मैंने नहीं दिये, क्योंकि जिस प्रतिके आधारपर इसका मुद्रण हुआ बताया जाता है, उससे मैंने मिलान कर लिया है; तथा किसी स्वतंत्र एवं प्रामाणिक प्रतिके आधारपर उसका सम्पादन होनेमें मुझे सन्देह है, जैसा कि उसमें प्रतियोंके नामके बिना दिये गये पाठान्तरोंसे मालूम होता है । संस्कृतछाया - निम्नलिखित कारणोंसे अपभ्रंश ग्रन्थमें संस्कृतछाया देनेके मैं विरुद्ध हूँ । प्रथम यह एक गलत मार्ग है, जो न तो भाषा और न इतिहास की दृष्टिसे ही उचित है । दूसरे, छाया भद्दी संस्कृतका क नमूना बन जाती है । क्योंकि अपभ्रंशमें वाक्य - विन्यास और वर्णनकी शैलीने उन्नति कर ली है, जो प्राचीन संस्कृतमें नहीं पाई जाती। तीसरे, उसका दुष्परिणाम यह होता है कि बहुतसे पाठक केवल छाया पढकर ही सन्तोष कर लेते हैं । प्राकृत ग्रन्थोंमें संस्कृतछाया देनेकी पद्धतिने भारतीय भाषाओंके अध्ययनको बहुत हानि पहुँचाई है । लोगोंने प्राकृतके अध्ययनकी ओरसे मुख फेर लिया है, मृच्छकटिक और शाकुन्तल सरीखे नाटक केवल संस्कृतके ग्रंथ बन गये हैं, जब कि स्वयं रचयिताओंने उनके मुख्य भागोंको प्राकृतमें रचा था; और परिणामस्वरूप आधुनिक भारतीय भाषाएँ प्राकृतको भुलाकर केवल संस्कृत शब्दोंसे अपना कलेवर पुष्ट कर रही हैं । तथापि प्रकाशकके आग्रहके कारण मुझे छाया देनी पडी है । छायामें अपभ्रंश शब्दोंके संस्कृत शब्द देते हुए कहीं कहीं उनके वैकल्पिक शब्द भी मैंने ब्रैकेट (कोष्टक) में दे दिये हैं । संस्कृतका एक स्वतंत्र वाक्य समझकर छायाका परीक्षण न चाहिये, किन्तु स्मरण रखना चाहिये कि यह अपभ्रंशकी केवल छाया मात्र है । पाठकोंकी सुविधाके लिये सन्धिके नियमोंका ध्यान नहीं रखा गया है । अनेक स्थलोंपर मा० जैनग्रन्थमालामें मुद्रित योगसारकी छायासे मेरी छायामें अन्तर है । श्रीस्याद्वादमहाविद्यालय, काशी भाद्रपद शुक्ल ५ दशलक्षणमहापर्व, वीर सं० २४६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only हिन्दी अनुवादकर्ता कैलाशचन्द्र शास्त्री www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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