________________
३०
चक्क-२.११.७,११.१९.७ ( चक्र ) चक्र चाव - ८.१३.२ ( चाप ) - धनुष्य छुरिया- ७.१७.१,७.२६.८ ( क्षुरिका ) - छरी तरवारि - ८.१२.१० ( तरवार ) - तरवार तामस अत्थ - ८.२१. २ ( तामस - अस्त्र ) - अंधकार फैलावी दे तेवुं अस्र तिस्सूल - ६.२७.१० ( त्रिशूल ) - त्रिशूळ तूणीर - १.२३.४ ( तूणीर ) - बाण भरवानुं भाथुं दिवायरत्थ - ८.२१ ३ ( दिवाकरास्त्र ) तेज प्रसारी दे तेवुं अस्त्र
धणु - १.२२.११ ( धनुष्य ) - धनुष्य धणुह - २.११.५ ( धनुष्य ) - धनुष्य धणुहिय - ८.४.५ धनुष्य ( प्रा० व्या० १.२२) धणुक्क - ३.१.१४ ( धनुष्य ) - धनुष्य नाय - पास - ८. २१.१ (नाग - पाश ) - नाग पाश नाराय-८.४ ७,८.१२.५ . ( नाराच ) एक प्रकार बा
फलह - ८.१५. २ ( परिघ ) - कडीवाळी लाकडी बाण - २.११.६, ८.१३२ ( बाण ) - बाण
कंसाल - ७.२१.८ ( कांस्याल ) - कांसी - जोडा करडिया - ७.२१. ३ ( करटिका ) - वाद्य - विशेष काहल - १०.२१.१ भेरी
१०.३.४ ( यमल - शङ्ख ) -
चक्क - १०.३.३ ( चक्र ) - १ जमल-संखजोडियो शंख झल्लरि - १०.३.३ ( झल्लरी) - झालर डमरुय - ११.१९.८ ( डमरु + क ) - डमरु ढक्का - १०.३.३ (ढक्का ) - ढक्का, डाक
७. वाघो
अइसय- ११.३२.४ ( अतिशय ) - अतिशय, विशेषता. तीर्थकरोना चोत्रीस अतिशयो होय छे.
Jain Education International
भल्ल-२.८.५,२.११.९ ( भल्ल ) - भालो भल्लि - ८ . ४ . २ ( भल्लि ) - भालो मंडलग्ग - २.९.१०, ३.७.१० ( मण्डलाग्र) खड्ग मोग्गर - ८.१२.८ ( मुद्गर ) - आयुध - विशेष, मोगरी
लट्ठिया - ८. ४. ४ ( यष्टिका ) - लाठी, लाकडी वज्ज - २.२.११ ( वज्र ) - वज्र वारुणत्थ - ८.२०१२ ( वारुणास्त्र ) - वरसाद वरसावे तेवुं अस्त्र
वावल्ल - २८.५ ( दे ० ) - शस्त्र - विशेष सत्ति - ८.१२.७ (शक्ति) - एक छुटुं फेंकवानुं आयुध
सन्नाह - ८.५१ ( संनाह ) - बख्तर, कवच सिरताण - ९.१६.१२ ( शिरस्त्राण ) - मस्तकनु रक्षण करनार टोप
सूल - ११.१९.७ (शूल) - त्रिशूळ सेल्ल- २.८.५, २.११.९ (दे०) भालो, बरछी
अवकरण- ११.१८.३ ( अपूर्वकरण) अनादि संसार-चक्रमां फरतां फरतां भव्ययोग्य आत्मामां एवी भाव-शुद्धि थई जाय
तूर ६.११.५,७.२१.१ ( तूर्य) - तूरी, वाजु दुंदुभि - (दुन्दुभि ) - दुन्दुभि
पडह - ७.१३.५ ( पटह ) - ढोल मउंद - १०.२७.१ ( मृदङ्ग ) - ढोलक मद्दल - १०.२७.१ (मर्दल ) - मुरज (दे० ना० ६. ११९ )
८. जैन पारिभाषिक शब्दो
मुख- ८.३३.३,१०.३.३ (मुख) - वीणा - १.१८.२,१०.२६.३ ( वीणा ) - वीणा
जे पहेलां कदी पण न थई होय अथवा करवामां न आवी होय. आवी भावशुद्धि ए अपूर्व-करण कहेवाय छे. आत्मिकआध्यामिक विकासना चौद सोपान ( गुणस्थान) मां आ आठमुं छे.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org