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________________ १९४ साहारणकरविरइया [११.३९ पंच-कोडि जहि द्रविड-नरिंदह सिद्ध कमेण दलिय-दुह-विंदह । १० जो फरिसिउ तेवीस-जिणिदेहिं सिहरि मणाहरि पणय-सुरिंदेहि । तत्थ सणंकुमार आरूढउ संजम-भारु पवरु उव्वूढउ । बहु समणेहिं सहियउ अणसणु गहियउ कियउ परम पायव-गमणु । तणु-चलणु निसिद्धउ चित्तु निरुद्धउ खवग-सेढि आरूढ-मणु ॥३८॥ तो नीसेसु कम्मु तें झाडिउ केवल दिव्व-नाणु उप्पाडिउ । सयल जोय-वावारु निरूद्धउ एक्केण वि समएण य सिद्धउ । तह जसवम्म-मणोरहदत्तेहिं वसुभूई-विणयंधर-मित्तेहिं । अन्नेहिं वि मुणिवरेहि सुहाविउ गेवेजाणुत्तर-पउ पाविउ । ५ बहु-तव-चरणेहि कम्म विमुद्धिय से विलासवइ पवत्तिणि सिद्धिय । अनाउ वि अज्जिय कय-उण्णिय देव-लोइ सव्वउ उप्पन्निय । तेण तित्थु सेत्तुंजु पसिद्धउ अंत-कालि कय-उण्णहं लद्धउ । विमल-गिरिहि जो अणसणु पावइ सो संसारि न पुणु पुणु आवइ । जेंव सुखेत्ति बीउ सुपइन्नउं तिंव सेतुंजे महाफलु दिन्नउं । १० जहिं पुंडरिउ परम-पउ पाविउ तहिं जिण-हरु भरहेण कराविउ । कालि वहंति जाव उद्दरियउ सगर-नराहिवेण उद्धरियउ । तयणतरु नरवइहि सउन्नहि उद्धरियउं तं चिय अन्नान्नहिं । तहिं पुंडरिउ जो जाएवि वंदइ सो अवस्स भव-तरु निक्कंदइ । कह विलासवइ एह समाणिय निय-बुद्धिहि मई जारिस जाणिय । १५ एह कह निसुणेविण सारु मुणे विणु सयल पमायइं परिहरहु । असुहहं मणु खंचहु जिणवरु अंचहु साहारणु विरमणु वरहु ॥३९॥ ॥ इइ विलासवई-कहाए एगारसमा संधी समत्ता ॥ ॥ समत्ता विलासवई-कहा ॥ [३८] १०. ला. फरिसिओ.......जिणिदिहि, पु०-सुरिंदिहिं । [३९] १. पु० तें साडिउ ४ पु० मुणिवरेहिं सोभाविउ १६. ला० साहारणु मणुथिरु धरहु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001874
Book TitleVilasvaikaha
Original Sutra AuthorSadharan
AuthorR M Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages310
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size17 MB
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