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________________ लोकविभागः [ १०.३२२ ईषत्प्राग्भारसंज्ञायाश्चतुरन्तविनिर्गताः । स्पृशन्त्यः कृष्णराजीनां बाह्यपाश्र्वानि रज्जयः ।। ३२२ तिर्यग्लोके पतन्त्येताः स्वयंभूरमणोदधेः । असंख्येयतमे भागे अभ्यन्तरतटात्परम् ॥३२३ तमस्कायस्य' राजेश्च पार्श्वेभ्योऽप्यवलम्बकाः । गत्वा चाद्यादसंख्येयद्वीपवार्धीन् पतन्ति च ॥ उक्तं च चतुष्कं त्रिलोकप्रज्ञाप्तौ [ ८, ६५९-६६२]— एदस्स चउदिसासुं चत्तारि तमोमयाओ रज्जूओ । णिस्सरिद्वणं बाहिरराजीणं होदि बाहिरण्यासा तच्छिविणं तत्तो ताओ पडिदाओ चरिमउवहिम्मि । अभंतरतीरादो संखातीदे य जोयणे य" धुवं ॥ बाहिरचउराजीणं बहिरवलंबो पडेदि दीवम्मि । जंबूदीवाहितो गंतूण असंखदीव वारिणिहि ॥ ६० बाहिर भागाहितो अवलंबो तिमिरकायणामस्स । जंबूदीवे [हिंतो ] तम्मेत्तं गदुब पडेदि दीवम्मि॥ ६१ शुभशय्यातलेष्वेते उदयेष्विव भास्कराः । पुण्यैः पूर्वाजितैर्देवा जायन्ते गर्भवजिताः ।। ३२५ आनन्दतूर्यनादैश्च तुष्टाम रबहुस्तवैः । जयशब्दरवैश्चैषां बुध्यन्ते जननं सुराः ॥ ३२६ देवा देवीसहस्राणां प्रहृष्टाननपुष्पितम् । सुरपङ्कजषण्डे स्वं पश्यन्ते [तो]ऽश्नुवते रतिम् ॥ ३२७ पूर्वाप्राप्तविजानाना जायन्तेऽवधिना सह । नानाविद्यासु निष्णाताः प्राज्ञाः सुप्तोत्थिता इव ॥ ३२८ २१६] विशेष - यहां उद्धृत गा. ४८ और ५७ का तिलोयपण्णत्तीके अनुसार पाठ ग्रहण करने पर यह लौकान्तिक देवोंकी सम्मिलित संख्या घटित होती है, अन्यथा वह घटित नहीं होती । ईषत्प्राग्भार नामक पृथिवीके चारों कोनोंसे निकलकर कृष्णराजियोंके बाह्य पार्श्वभागों को छूनेवाली चार रज्जुएं ( रस्सियां ) हैं ॥ ३२२ ॥ | ये रस्सियां तिर्यग्लोक में स्वयम्भूरमण समुद्र के अभ्यन्तर तटसे असंख्येयतम भाग में जाकर - असंख्यात योजन जाकर - पड़ती हैं ।। ३२३ ।। तमस्काय और राजिके पावका अवलम्बन करनेवाली वे रस्सियां जम्बूद्वीपसे असंख्यात द्वीप - समुद्र जाकर गिरती हैं ।। ३२४ ।। इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाली चार गाथायें त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी कही गई हैं। ― इस ईषत्प्राग्भार क्षेत्रकी चारों दिशाओं में निकलकर बाह्य रज्जुओंके बाह्य भागको छूने वाली चार अन्धकारस्वरूप रज्जुएं ( रस्सियां ) हैं ।। ५८ ।। वे उसको छू करके वहांसे अन्तिम समुद्र में अभ्यन्तर तटसे असंख्यात योजन जाकर गिरी हैं ॥ ५९ ॥ बाह्य चार राजियोंके बाह्य भागका अवलम्बन करनेवाला वह तमस्काय जम्बूद्वीपसे असंख्यात द्वीप समुद्र जाकर द्वीपमें गिरता है ।। ६० ।। तिमिरकायका अवलम्ब बाह्य भागोंसे उतने मात्र योजन जम्बूद्वीपमें जाकर द्वीपमें गिरता है ।। ६१॥ जिस प्रकार सूर्य उदयाचलोंपर उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार ये देव पूर्वोपार्जित पुण्यसे गर्मसे रहित होकर शुभ शय्यातलोंके ऊपर उत्पन्न होते हैं ।। ३२५ ।। दूसरे देव इनके जन्मको आनन्द बाजों के शब्दों से, संतुष्ट होकर देवोंके द्वारा किये जाने वाले बहुत स्तवनोंसे तथा ' जय' शब्दकी ध्वनियोंसे जानते हैं ॥ ३२६ ॥ वे देव हजारों देवियोंके प्रमुदित मुखोंसे प्रफुल्लित हुए अपनेको देवोंरूप कमलोंके समूहमें देखकर आनन्दको प्राप्त होते हैं || ३२७|| अनेक विद्याओंमें निपुण वे बुद्धिमान् देव अवधिज्ञानके साथ पूर्व में कभी नहीं प्राप्त हुए इस वैभवको जानते हुए सोकर उठे १ आप तमस्कायश्च २ ब 'राजेश्च' नास्ति । ३ व वादन् । ४ आ ब बाहिरं पासं । ५ ब दुवं । ६ ति. प. बहियवलंबो पदेदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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