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________________ २१४] लोकविभागः [ १०.३२१तेलोयंतियदेवा' अद्वसु राजीसु होति विच्चाले । सारस्सदपहुदि तहा ईसाणदिसादियासु चउबीसं॥ पुग्वुत्तरदिब्भागे वसंति सारस्सदा सुरा णिच्चं । आइच्चा पुटवाए अणलदिसाए वि वण्हिसुरा॥ दक्षिणदिसाए अरुणा णेरिदिभागम्मि गद्दतोया य।। पच्छिमदिसाए तुसिदा अव्वाबाहा समीरदिन्माए ॥४१ उत्तरदिसाए रिद्वा एमेत अट्ठ ताण विच्चाले। दो हो हवंति अण्णे देवा तेसि इमे णामा ॥४२ सारस्सदणामाणं आइच्चाणं सुराण विच्चाले । अणलामा सूराभा देवा चिट्ठति णियमेण ॥४३ चंदामा सच्चाभा देवा आइच्चवण्हिविच्चाले' । सेयक्खा खेमकरणामसुरावण्हिअरुणमज्झम्मि॥४४ विसकोट्ठा कामधरा' विच्चाले अरुणगढतोयाणं । णिम्माणराजदिसअंतरक्खिणो गद्दतोयतुसिदाणं ॥४५ तुसिदव्वाबाहाणं विच्चाले अप्पसव्वरक्खसुरा । मरुदेवा वसुदेवा तह अव्वाबाहरिट्ठमज्झम्मि॥४६ सारस्सदरिट्ठाणं विच्चाले अस्सविस्सणामसुरा। सारस्सदआइच्चा पत्तक्कं सत्त सत्त सया ॥४७ ।सा आ [अ] सू आ । आ चं तू व । व श्रे क्षे अ। अव [व] ता [का] ग । गनि दि तु। तु आ स अ। अ म व अ । अ अ वि सा। । ७०७ । ७०७ । वण्ही अरुणा देवा सत्तसहस्साणि सत्त पत्तेक्कं । णवजुत्तणवसहस्सा तुसिदसुरा गद्दतोया य ॥४८ ।७००७ । ७००७ । ९००९ । ९००९ । हैं- अतएव उनका ‘लौकान्तिक ' यह सार्थक नाम है ।। ३८ ।। वे सारस्वत आदि लौकान्तिक देव ईशान आदि दिशाओं में उन आठ राजियोंके मध्यमें रहते हैं । उनके बीचमें दो दो दूसरे देव रहते हैं । इस प्रकार वहां चौबीस देव रहते हैं ।। ३९ ।। सारस्वत देव निरन्तर पूर्व-उत्तर दिशाभाग (ईशान) में रहते हैं । आदित्य देव पूर्व दिशामें तथा वह्नि देव आग्नेय दिशामें रहते हैं । अरुण देव दक्षिण दिशामें, गर्दतोय नैर्ऋत्य भागमें, तुषित पश्चिम दिशामें, अव्याबाध वायव्य दिशामें और अरिष्ट देव उत्तर दिशा में रहते हैं । इस प्रकार ये आठ लौकान्तिक देव रहते हैं। उनके अन्तरालमें जो दो दो दूसरे देव रहते हैं उनके नाम ये हैं- सारस्वत और आदित्य देवों के मध्यमें नियमसे अनलाभ और सूराभ देव रहते हैं, आदित्य और वह्नि देवोंके अन्तरालमें चन्द्राभ और सत्याभ, वह्नि और अरुण देवोंके अन्तरालमें श्रेय नामक (श्रेयस्कर) और क्षेमकर नामक, अरुण और गर्दतोय देवोंके मध्ममें वृषकोष्ठ और कामधर, गर्दतोय और तुषित देवोंके मध्य में निर्माणराज और दिगन्तरक्षक, तुषित और अव्याबाध देवोंके मध्यमें अल्परक्ष और सर्वरक्ष, अव्याबाध और अरिष्ट देवोंके अन्तरालमें मरुदेव और वसुदेव, तथा सारस्वत और अरिष्ट देवोंके मध्य में अश्व और विश्व नामक देव रहते हैं [सा ( सारस्वत ) और आ ( आदित्य ) के अन्तरालवर्ती अ (अनलाभ) सू (सूर्याभ) आदिकी संदृष्टि मूलमें देखिये ] । सारस्वत और आदित्य देवोंमें प्रत्येक सात सौ सात (७०७) हैं ॥४०-४७।। वह्नि और अरुण देवोंमेंसे प्रत्येक सात हजार सात (७००७) तथा तुषित और गर्दतोयमेंसे प्रत्येक नौ हजार नौ (९००९)हैं ।। ४८ ।। १ आब तल्लोयंतिय । २ व बिब्बाले। ३ ति. प. एमेते । ४ । विब्बाले । ५ . कामदरा। ६ ति. प. (८-६२४) पत्तेक्कं होति सत्तसया । ७ प णवजुदणव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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