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प्रस्तावना
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नहीं हुए थे वे अब सघनरूपमें गर्जना करते हुए आकाशमें दिखने लगे थे। उनके द्वारा जो समुचित वर्षा की जाती थी उससे विना जोते व विना बोये ही अनेक प्रकारके अनाज स्वयं उत्पन्न होकर पक चुके थे। परन्तु भोले-भाले प्रजाजन उनका उपयोग करना नहीं जानते थे। इसलिए वे भूख आदिसे पीड़ित होकर अतिशय व्याकुल थे। तब दयालु नाभिराजने उन्हें यथायोग्य आजीविकाके साधनोंकी शिक्षा देकर निराकुल किया था । प्रसंगवश यहाँ कुलकर, मनु व कुलधर आदि नामोंको सार्थकताका दिग्दर्शन कराते हुए उनके द्वारा यथायोग्य की जानेवाली दण्डव्यवस्था के साथ पूर्वांग व पूर्व आदि विविध कालभेदोंकी भी प्ररूपणा की गई है । कर्मभूमिके प्रारम्भमें ग्राम, पुर व पत्तन आदि तथा ग्रामाध्यक्ष आदिकी व्यवस्था भगवान् आदि जिनेन्द्रके द्वारा की गई थी। यहाँसे कर्मभूमिका प्रारम्भ हो जाता है। आगे अवसर्पिणीके शेष तीन कालोंमें होनेवाली अवस्थाओंका वर्णन करते हुए अवसर्पिणीका अन्त और उत्सपिणीका प्रारम्भ कैसे होता है, इसका दिग्दर्शन कराया गया है और अन्तमें उत्सर्पिणीके भी छह कालोंका उल्लेख करके इस प्रकरणको समाप्त किया गया है।
६. ज्योतिर्लोकविभाग- इस प्रकरणमें २३६ श्लोक हैं। यहां प्रारम्भमें ज्योतिषी देवोंके ५ भेदोंका निर्देश करके पृथिवीतलसे ऊपर आकाशमें उनके अवस्थानको दिखलाते हुए ताराओंके अन्तर तथा सूर्यादिके विमानोंके विस्तार, बाहल्य व उनके वाहक देवोंके आकार एवं संख्याकी प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् अभिजित् आदि नक्षत्रोंका संचार, चन्द्रादिकोंकी गतिकी विशेषता, चन्द्र-सूर्यका आवरण, मेरुसे ज्योतिर्गणकी दुरीका प्रमाण, द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र व सूर्योकी संख्या, प्रत्येक चन्द्र व सूर्यके ग्रह-नक्षत्रोंकी संख्या, सूर्य-चन्द्रका संचारक्षेत्र, द्वीप-समुद्रोंमें उनकी वीथियों व वलयोंकी संख्या, वीथिके अनुसार मेरुसे सूर्यका अन्तर, दोनों सूर्योंके मध्यका अन्तर, वीथियोंका परिधिप्रमाण, चन्द्रोंके मेरुसे व परस्परके अन्तरका प्रमाण, चन्द्रवीथियोंका परिधिप्रमाण, लवणोदादिमें संचार करनेवाले सूर्योका अन्तर, गति, मुहूर्तगति, चन्द्रकी मुहूर्तगति, दिन-रात्रिका प्रमाण, ताप व तम क्षेत्रोंका परिधिप्रमाण, ताप व तमकी हानि-वृद्धि, सूर्यका जंबू द्वीपादिमें चारक्षेत्र, अधिक मास, उत्तरायणकी समाप्ति व दक्षिणायनका प्रारम्भ; युगका प्रारम्भ, आवृत्तियों की संख्या, तिथि व नक्षत्र, विषुपोंकी तिथियां व नक्षत्र, प्रत्येक चन्द्रके ग्रह, नक्षत्र, कृत्तिका आदि नक्षत्रोंकी तारासंख्या, अभिजित् आदि नक्षत्रोंका चन्द्रके मार्ग में संचार, उनका अस्त व उदय, जघन्यादि नक्षत्रोंका नामनिर्देश, उनपर सूर्य-चन्द्रका अवस्थान, मण्डलक्षेत्र व देवता; समय व आवली आदिका प्रमाण चक्षु इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय, अयोध्यामें सूर्य बिम्बस्य जिनप्रतिमाका अवलोकन, भरतादि क्षेत्रोंमें तारासंख्या, अढाई द्वीपस्थ नक्षत्रादिकी संख्या तथा चन्द्र-सूर्यादिका आयुप्रमाण ; इन सबकी यथाक्रमसे प्ररूपणा की गई है।
७. भवनवासिलोकविभाग-- इस प्रकरणमें ९० श्लोक हैं। यहाँ प्रारम्भमें चित्रावज्रा आदि पृथिवियोंका नामनिर्देश करके असुरकुमारादि दस प्रकारके भवनवासियोंके भवनोंकी संख्या व उनका विस्तारादि, भवनवासियोंके २० इन्द्रोंके नाम, उनकी भवनसंख्या, सामानिक आदि परिवारभूत देव-देवियोंकी संख्या, आयुप्रमाण, शरीरकी ऊंचाई, जिनभवन, चैत्यवृक्ष, मुकुटचिह्न, चमरेन्द्रादिका सौधर्मेन्द्रादिसे स्वाभाविक विद्वेष, व्यन्तर व अल्पद्धिक आदि भवनवासी देवोंके भवनोंका अवस्थान और असुरकुमारोंकी गति आदिका वर्णन करते
लो. वि. प्रा. २
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