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________________ किश्चित् प्रास्ताविक कि एक दिन न्यून रहते, शक संवत्सर ७०० में यह ग्रन्थ समाप्त हो रहा है। शक संवत्सर ७०० की तुलनामें विक्रम संवत् ८३५ आता है। इस दृष्टिसे हरिभद्रसूरि, विक्रमकी ९ वीं शताब्दीके प्रथम पादमें हुए यह निश्चित होता है। न वे जैसा कि परंपरागत गाथामें सूचित वि० सं० ५८५ में ही स्वर्गस्थ हुए, और न सिद्धर्षिके समकालीन वि० सं० ९६२ के आसपास ही हुए। मैंने इस प्रमाणको सन्मुख रख कर, हरिभद्रसूरिके समयका निर्णायक निबन्ध लिखना शुरू किया था । पर साथमें पूनाके उक्त ग्रन्थसंग्रहमें उपलब्ध हरिभद्रसूरिके अन्यान्य विशिष्ट ग्रन्थोंके अवलोकनका भी मुझे अच्छा अवसर मिला। इन ग्रन्थोंमें कई ऐसे विशिष्ट अन्य प्रमाण मिले जो उनके समयका निर्णय करनेमें अधिक आधाररूप और ज्ञापकखरूप थे। डॉ० याकोबीके अवलोकनमें ये उल्लेख नहीं आये थे, इस लिये मुझे अपने निबन्धके उपयोगी ऐसी बहुत नूतन सामग्री मिल गई थी, जिसका पूरा उपयोग मैंने अपने उस निबन्धमें किया। मैंने अपना यह निबन्ध संस्कृत भाषामें लिखा । और उक्त 'ऑल इण्डिया ओरिएन्टल कॉन्फरन्स'के प्रमुख अधिवेशनमें विद्वानोंको पढ कर सुनाया। उस कॉन्फरन्सके मुख्य अध्यक्ष, स्वर्गस्थ डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण थे, जो उन दिनों भारतके एक बहुत गण्य मान्य विद्वान् माने जाते थे। उनने भी अपने एक ग्रन्थमें हरिभद्रसूरिके समयकी थोडीसी चर्चा की थी। मैंने अपने निबन्धमें इनके कथनका भी उल्लेख किया था और उसको असंगत बता कर उसकी आलोचना भी की थी। विद्याभूषण महाशय वयं मेरे निबन्धपाठके समय श्रोताके रूपमें उपस्थित थे। मेरे दिये गये प्रमाणोंको सुन कर, वे बहुत प्रसन्न हुए। मेरी की गई आलोचनाको उदार हृदयसे बिल्कुल सत्य मान कर उनने, बादमें मेरे रहनेके निवासस्थान पर आकर, मुझे बडे आदरके साथ बधाई दी । ऐसे सत्यप्रिय और साहित्यनिष्ठ प्रखर विद्वान्की बधाई प्राप्त कर मैंने अपनेको धन्य माना। पीछेसे मैंने इस निबन्धको पुस्तिकाके रूपमें छपवा कर प्रकट किया और फिर बादमें, 'जैन साहित्य संशोधक' नामक संशोधनात्मक त्रैमासिक पत्रका संपादन व प्रकाशन कार्य, स्वयं मैंने शुरू किया, तब उसके प्रथम अंकमें ही "हरिभद्रसारिका समयनिर्णय" नामक विस्तृत लेख हिन्दीमें तैयार करके प्रकट किया। . मैंने इन लेखोंकी प्रतियां जर्मनीमें डॉ० याकोबीको भेजी जो उस समय, आधुनिक पश्चिम जर्मनीकी राजधानी बॉन नगरकी युनिवर्सिटीमें भारतीय विद्याके प्रख्यात प्राध्यापकके पद पर प्रतिष्ठित थे। डॉ० याकोबीने मेरे निबन्धको पढ कर अपना बहुत ही प्रमुदित भाव प्रकट किया । यद्यपि मैंने तो उनके विचारोंका खण्डन किया था और कुछ अनुदार कहे जाने वाले शब्दोंमें भी उनके विचारोंकी आलोचना की थी। पर उस महामना विद्वान्ने, सत्यको हृदयसे सत्य मान कर, कटु शब्दप्रयोगका कुछ भी विचार नहीं किया और अपनी जो विचार-भ्रान्ति थी उसका निश्छद्म भावसे पूर्ण खीकार कर, मेरे कथनका संपूर्ण समर्थन किया । ___ हरिभद्रसूरिकी समराइच्चकहा नामक जो विशिष्ट प्राकृत रचना है उसका संपादन डॉ० याकोबीने किया है और बंगालकी एसियाटिक सोसाइटी द्वारा प्रकाशित 'बिब्लियोथिका इन्डिका' नामक सीरीझमें वह प्रकट हुई है। इस ग्रन्थकी भूमिकामें डॉ० याकोबीने मेरे निबन्धकी प्रशंसा करते हुए वे सारी बातें बडे विस्तारसे लिखी हैं जिनका संक्षिप्त परिचय मैंने ऊपर दिया है। डॉ० याकोबीके विचारोंको जब मैंने पढा तो मुझे जर्मनीके महान् विद्वानोंकी सत्यप्रियता, ज्ञानोपासना एवं कर्तव्यनिष्ठाके प्रति अत्यन्त समादर भाव उत्पन्न हुआ। मेरे मनमें हुआ कि कहां डॉ० याकोबी जैसा महाविद्वान् , जिसको समग्र भारतीय साहित्य और संस्कृतिका हस्तामलकवत् स्पष्ट दर्शन हो रहा है, और कहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001869
Book TitleKuvalayamala Katha Sankshep
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotansuri, Ratnaprabhvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1959
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size14 MB
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