SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किञ्चित् प्रास्ताविक । ( कुवलयमाला कथाके प्रकाशनकी पूर्व कथा । ) * अनेक वर्षोंसे जिसके प्रकाशित होनेकी विद्वानोंको विशिष्ट उत्कण्ठा हो रही थी, उस दाक्षिण्य चिह्नाङ्कित उद्द्योतन सूरिकी बनाई हुई प्राकृत महाकथा कुवलयमाला, सिंघी जैन ग्रन्थमाला के ४५ मणिरत्नके रूपमें, आज प्रकट करते हुए मुझे अतीव हर्षानुभव हो रहा है 1 इस कथा ग्रन्थको इस रूपमें प्रकट करनेका आजसे कोई ४५ वर्ष पूर्व, मेरा संकल्प हुआ था । विद्वन्मतल्लिक मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी के स्वर्गीय गुरुवर्य्य श्री चतुरविजयजी महाराजने रत्नप्रभसूरिकृत गद्यमय संस्कृत कुवलयमाला कथाका संपादन करके भावनगरकी जैन आत्मानन्द सभा द्वारा (सन् १९१६) प्रकाशित करनेका सर्वप्रथम सुप्रयत्न किया, तब उसकी संक्षिप्त प्रस्तावना में प्रस्तुत प्राकृत कथाका आद्यन्त भाग उद्धृत करने की दृष्टिसे, पूनाके राजकीय ग्रन्थसंग्रह ( जो उस समय डेक्कन कॉलेजमें स्थापित था ) में सुरक्षित इस ग्रन्थकी, उस समय एकमात्र ज्ञात प्राचीन हस्तलिखित प्रति, मंगवाई गई । हमारे स्वर्गस्थ विद्वान् मित्र चिमनलाल डाह्याभाई दलाल, एम्. ए. ने उस समय 'गायकवाड ओरिएन्टल सिरीझ' का काम प्रारंभ किया था । प्रायः सन् १९१५ के समयकी यह बात है। उन्हीं के प्रयत्नसे पूना वाली प्रति बडौदामें मंगवाई गई थी। मैं और श्री दलाल दोनों मिल कर उस प्रतिके कुछ पन्ने कई दिन टटोलते रहे, और उसमेंसे कुछ महत्त्व उद्धरण नोट करते रहे । श्री दलालके हस्ताक्षर बहुत ही अव्यवस्थित और अस्पष्ट होते थे अतः इस ग्रन्थगत उद्धरणोंका आलेखन मैं ही स्वयं करता था । ग्रन्थका आदि और अन्त भाग मैंने अपने हस्ताक्षरोंमें सुन्दर रूपसे लिखा था । उसी समय कथागत वस्तुका कुछ विशेष अवलोकन हुआ और हम दोनोंका यह विचार हुआ कि इस ग्रन्थको प्रकट करना चाहिये। मैंने श्री दलालकी प्रेरणासे, गायकवाड सीरीझके लिये, सोमप्रभाचार्य रचित कुमारपालप्रतिबोध नामक विशाल प्राकृत ग्रन्थका संपादन कार्य हाथमें लिया था; और उसका छपना भी प्रारंभ हो गया था। मैंने मनमें सोचा था कि कुमारपालप्रतिबोधका संपादन समाप्त होने पर, इस कुवलयमालाका संपादन कार्य हाथमें लिया जाय । श्री दलाल द्वारा संपादित गायकवाड ओरिएन्टल सीरीझका प्रथम ग्रन्थ राजशेखरकृत 'काव्यमीमांसा' प्रकट हुआ । इसके परिशिष्टमें, कुवलयमाला के जो कुछ उद्धरण दिये गये हैं उनकी मूल नकल सर्वप्रथम मैंने ही की थी । पूना वाली प्रतिका ऊपर ऊपरसे निरीक्षण करते हुए मुझे आभास हुआ कि वह प्रति कुछ अशुद्ध है । पर उस समय, जेसलमेरकी प्रति ज्ञात नहीं थी । उसी वर्ष जेसलमेर के ज्ञानभंडारोंका निरीक्षण करनेके लिये, स्वर्गवासी विद्याप्रिय सयाजीराव गायकवाड नरेशका आदेश प्राप्त कर, श्री दलाल वहां गये और प्रायः तीन महिना जितना समय व्यतीत कर, वहांके भंडारोंकी ग्रन्थराशिका उनने ठीक ठीक परिचय प्राप्त किया। तभी उनको जेसलमेर में सुरक्षित प्राकृत कुवलयमालाकी ताडपत्रीय प्राचीन प्रतिका पता लगा ! पर उनको उसके ठीकसे देखनेका अवसर नहीं मिला था, अतः इसकी कोई विशेषता उनको ज्ञात नहीं हुई । बादमें बडौदासे मेरा प्रस्थान हो गया । Jain Education International सन् १९१८ में मेरा निवास पूनामें हुआ । भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टिट्यूट की स्थापना काममें, जैन समाजसे कुच्छ विशेष आर्थिक सहायता प्राप्त करानेकी दृष्टिसे, इन्स्टिट्यूट के मुख्य स्थापक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001869
Book TitleKuvalayamala Katha Sankshep
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotansuri, Ratnaprabhvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1959
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy