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________________ किञ्चित् प्रास्ताविक विषयमें परस्पर बहुत ऊहापोह होता रहा और इस कुवलयमाला कथाके विषय और वर्णनोंके बारेमें मी इनको बहुत कुछ जानकारी कराई गई । नासिकके जेलनिवास दरम्यान ही मेरा संकल्प और भी अधिक दृद्ध हुआ कि अवसर मिलते ही अब सर्वप्रथम इस ग्रन्थके प्रकाशनका कार्य हाथमें लेना चाहिये। जेलमेंसे मुक्ति मिलने बाद, बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके आग्रह पर, गुरुदेव रवीन्द्रनाथके सान्निध्यमें रहनेकी इच्छासे, मैंने कुछ समय विश्वभारती- शन्तिनिकेतनमें अपना कार्यकेन्द्र बनानेकी योजना की । सन् १९३१ के प्रारंभमें शान्तिनिकेतनमें सिंघी जैन ज्ञानपीठकी स्थापना की गई और उसके साथ ही प्रतुत सिंघी जैन ग्रन्थमालाके प्रकाशनकी भी योजना बनाई गई। अहमदाबादके गुजरात विद्यापीठस्थित गुजरात पुरातत्त्व मन्दिरकी ग्रन्थावलि द्वारा जिन कई ग्रन्थोंके प्रकाशनका कार्य मैंने निश्चित कर रखा था, उनमेंसे प्रबन्धचिन्तामणि आदि कई ऐतिहासिक विषयके ग्रंथोंका मुद्रणकार्य, सर्वप्रथम हाथमें लिया गया। प्रबन्धचिन्तामणिका कुछ काम, जर्मनी जानेसे पूर्व ही मैंने तैयार कर लिया था और उस ग्रन्थको बंबईके कर्णाटक प्रेसमें छपनेको भी दे दिया था। ५-६ फार्म छप जाने पर, मेरा जर्मनी जानेका कार्यक्रम बना और जिससे वह कार्य वहीं रुक गया। मेरे जर्मनी चले जाने बाद, गुजरात पुरातत्त्व मन्दिरका वह कार्य प्रायः सदाके लिये स्थगित-सा हो गया । इस लिये शान्तिनिकेतनमें पहुंचते ही मैंने इसका कार्य पुनः प्रारंभ किया और बंबईके सुविख्यात निर्णयसागर प्रेसमें इसे छपनेके लिये दिया। इसीके साथ ही मैंने कुवलयमालाका काम भी प्रारंभ किया । शान्तिनिकेतनमें विश्वभारतीके मुख्य अध्यापक दिवंगत आचार्य श्री विधुशेखर भट्टाचार्यके साथ इस ग्रन्थके विषयमें विशेष चर्चा होती रही । उनको मैंने इस ग्रन्थके अनेक अवतरण पढ कर सुनाये और वे भी इस प्रन्थको शीघ्र प्रकाशित करनेका साग्रह परामर्श देते रहे। इस ग्रन्थको किस आकारमें और कैसे टाईपमें छपवाया जाय इसका परामर्श मैंने प्रेसके मैनेजरके साथ बैठ कर किया। और फिर पहले नमूनेके तौर पर १ फार्मकी प्रेसकॉपी ठीक करनेके लिये, पूना और जेसलमेर वाली दोनों प्रतियोंके पाठमेद लिख कर उनको किस तरह व्यवस्थित किया जाय इसका उपक्रम किया। पूना वाली प्रति परसे तो मैंने पहले ही अहमदाबादमें उक्त रूपमें एक अच्छे प्रतिलिपिकारके हाथसे प्रतिलिपि करवा रखी थी और फिर उसका मिलान जेसलमेरकी प्रतिके लिये गये फोटोसे करना प्रारंभ किया । जैसा कि विज्ञ पाठक प्रस्तुत मुद्रणके अवलोकनसे जान सकेंगे कि इन दोनों प्रतियोंमें परस्पर बहुत पाठमेद हैं और इनमें से कौनसी प्रतिका कौनसा पाठ मूलमें रखा जाय और कौनसा पाठ नीचे रखा जाय इसके लिये प्रत्येक शब्द और वाक्यको अनेक बार पढना और मूल पाठके औचित्यका विचार करना बडा परिश्रमदायक काम अनुभूत हुआ। इसमें भी जेसलमेरकी जो फोटोकॉपी सामने थी वह उतनी स्पष्ट और सुवाच्य नहीं थी, इस लिये वारंवार सूक्ष्मदर्शक काचके सहारे उसके अक्षरोंका परिज्ञान प्राप्त करना, मेरी बहुत ही दुर्बल ज्योति वाली आंखोंके लिये बडा कष्टदायक कार्य प्रतीत हुआ। पर मैंने बडी साइझके ८-१० पृष्ठोंका पूरा मेटर तैयार करके प्रेसको भेज दिया और किस टाईपमें यह ग्रन्थ मयपाठमेदोंके ठीक ढंगसे अच्छा छपेगा और सुपाठ्य रहेगा, इसके लिये पहले १-२ पृष्ठ, ३-४ जातिके भिन्न भिन्न टाईपोंमें कंपोज करके भेजनेके लिये प्रेसको सूचना दी और तदनुसार प्रेसने वे नमूनेके पेज कंपोज करके मेरे पास भेज दिये । मैंने उस समय इस ग्रन्थको, डिमाई ४ पेजी जैसी बडी साइझके आकारमें छपवाना निश्चित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001869
Book TitleKuvalayamala Katha Sankshep
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdyotansuri, Ratnaprabhvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1959
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size14 MB
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