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________________ ६८) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दोनों के जानने-समझने का फल तो निश्चयव्यवहार नयों की यथार्थ समझ है । अत: इनके सावधानीपूर्वक प्रयोग का फल, आत्मानुभव आना चाहिए। ___ अध्यात्म शब्द का अर्थ : बृहद्र्व्यसंग्रह गाथा ५७ में बताया गया है कि :- “मिथ्यात्व रागादि समस्त विकल्प मात्र के त्याग से, स्वशुद्धात्मा में जो अनुष्ठान होता है, उसे अध्यात्म कहते हैं।" इस परिभाषा के अनुसार हमारे प्रयोजन की सिद्धि तो मात्र अध्यात्म के नय अर्थात् निश्चय नय एवं व्यवहार नय से ही हो सकती है। जिसप्रकार द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयों का प्रयोग मुख्यता गौणता पूर्वक करने से आत्म वस्तु की यथार्थ समझ उत्पन्न होती है, उसीप्रकार निश्चय-व्यवहार नयों के मुख्यता-गौणतापूर्वक यथार्थ प्रयोग करने पर आत्मोपलब्धि अर्थात् आत्मा का अनुभव प्राप्त होता है। दोनों प्रकार के नयों के प्रयोग में मुख्यता-गौणता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वस्तु सामान्य विशेषात्मक है तो उसको जानने वाला ज्ञान भी दोनों को जानने वाला होना ही चाहिए । ज्ञान में दोनों नयों के विषयों को एक साथ जानने की सामर्थ्य होते हुए भी, हम छद्मस्थों के ज्ञान की ऐसी निर्बलता है कि दोनों पक्षों में से एक समय, मात्र एक ही पक्ष को जान पाता है। अत: उसके ज्ञान को अनिवार्य हो जाता है कि हर समय एक पक्ष को गौण रखते हुए ही प्रवर्तन करे। तात्पर्य है कि नयों के प्रयोग में मुख्य-गौण व्यवस्था अनिवार्य एवं आवश्यक भी है। उसके बिना वस्तु को समझना असंभव है। उसी प्रकार आत्मा का अनुभव करने के लिये भी निश्चय-व्यवहारनयों में भी मुख्यता-गौणता पूर्वक ही प्रयोग अनिवार्य है। सिद्धान्त है कि अनुभव अर्थात् वेदन हमेशा मुख्य का होता है। जीव जिसको मुख्य अर्थात् महत्वपूर्ण मानता है, ज्ञान उस ही के सन्मुख होकर प्रवर्तन करने लगता है ; ऐसा ही हमारे अनुभव में भी आता है। जैसे हमारे सामने अनेक ज्ञेय उपस्थित होते हुए भी उन सब में से मेरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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