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देशनालब्धि की मर्यादा)
(२३३ यहाँ तो हमारा विषय सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पूर्व अर्थात् प्रायोग्यलब्धि एवं करणलब्धि के पूर्व, देशनालब्धि की पूर्णता का स्वरूप क्या है? वह समझना है।
प्रायोग्यलब्धि एवं करणलब्धि के पुरुषार्थ का स्वरूप क्या है? एवं उसके लिये पुरुषार्थ कैसे प्रारम्भ होकर पूर्णता को प्राप्त होता है, यह विषय आगे भाग ६ में स्पष्ट करने की चेष्टा की जावेगी। यहाँ तो हम देशनालब्धि की अन्तिम दशा को समझने का प्रयास करेंगे। क्योंकि देशनालब्धि की चरम दशा को प्राप्त होने पर देशनालब्धि द्वारा निर्णीत आत्मस्वरूप को अपने उपयोग में प्रत्यक्ष करने की तीव्र रुचि जाग्रत होने पर ही प्रायोग्यलब्धि में पदार्पण होता है। देशनालब्धि के द्वारा जब तक उस आत्मस्वरूप का संशयरहित, अकाट्य निर्णय नहीं हो जावेगा तबतक निःशंक होकर पुरूषार्थ आत्मसन्मुख अग्रसर कैसे हो सकेगा? इसीलिये उस आत्मस्वरूप का संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय रहित यथार्थ निर्णय होने का इतना ज्यादा महत्व है, जितना कि सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का। आत्मा के स्वरूप के रुचिपूर्वक यथार्थ और निःशंक निर्णय के बिना आत्मलक्ष्यी पुरुषार्थ ही प्रारंभ नहीं होगा तो आत्मदर्शन तो असंभव ही है। अत: देशनालब्धि की चरमदशा के स्वरूप को समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण होने से, हम इस भाग में उस ही को समझने का प्रयास करेंगे। सम्यक्त्व सन्मुख जीव को पांचलब्धियाँ एवं उनका स्वरूप
देशनालब्धि के निर्णय का स्वरूप समझने के लिए पहिले उस आत्मार्थी की आत्मा के भावों की पात्रता कैसी होती है, यह समझना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना देशना का स्वरूप समझना। क्योंकि वह देशना पात्रता के बिना मात्र क्षयोपशम ज्ञान का विषय बनकर ही रह जावेगी।
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