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________________ देशनालब्धि की मर्यादा) (२३१ सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और ऐसा जीव ही सम्यग्दृष्टि है। जैसाकि आचार्य कुंदकुंद ने समयसार की गाथा संख्या ११ में कहा है : अर्थ :- “व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है, ऐसा ऋषिवरों ने बताया है, जो जीव भूतार्थ का अर्थात् शुद्धनय का आश्रय लेता है वह जीव निश्चय से वास्तव में सम्यग्दृष्टि है।" इसप्रकार अस्ति की मुख्यता से आत्मा के स्वरूप की यथार्थ समझ ही, सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का सरल से सरल उपाय है। देशनालब्धि की पूर्णता का स्वरूप एवं उसकी आवश्यकता? देशनालब्धि का स्वरूप मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २६१ पर निम्न प्रकार बताया गया है - “जिनदेव के उपदिष्ट तत्त्व का धारण हो, विचार हो सो देशनालब्धि उपरोक्त स्वरूप का मर्म समझने से सहज ही समझ में आ जाता है कि मात्र सुन लेना देशनालब्धि नहीं है तथा ज्ञान के क्षयोपशम की धारणा में लेकर ज्ञान का क्षयोपशम बढ़ा लेना भी देशनालब्धि नहीं है, वरन् विचार करना अर्थात् आगम समर्थित युक्तियों के द्वारा यथार्थ निर्णय की पराकाष्ठा रूप अपने आत्मा के स्वरूप को, संशय-विमोह-विभ्रम रहित शंका रहित होकर स्पष्ट समझ लेने को ही सच्ची देशनालब्धि बताया है, यह निर्णय तो विकल्पसहित दशा में ही आत्मार्थी को होता है। इसके पश्चात् ही प्रायोग्यलब्धि का पुरुषार्थ प्रारंभ हो सकता है। देशनालब्धि में तो आत्मा का ज्ञान परलक्ष्यी ही बना रहता है। उसी परलक्ष्यी ज्ञान में ही यथार्थ निर्णय होता है। लेकिन प्रायोग्यलब्धि के प्रारंभकाल से ही वही ज्ञान आत्मलक्ष्यी की ओर अग्रसर होकर उस ही निर्णय के विषय को प्राप्त करने का अर्थात् अपने उपयोग में उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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