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________________ यथार्थ समझ से ही आत्मोपलब्धि योग्य रुचि की उत्पत्ति ) (१८५ जैसे किसी को, किसी आवश्यक कार्य हेतु किसी स्थान विशेष पर शीघ्र पहुँचना अत्यन्त आवश्यक हो लेकिन उसको गंतव्य स्थान पर पहुँचने का मार्ग ही ज्ञात नहीं हो तो वह व्यक्ति सर्वप्रथम उसका मार्ग खोजने की व्यग्रता से चेष्टा करेगा और जब किसी भी प्रकार से उसे वह मार्ग समझ में आ जावे तो, क्या उस समझ लेने मात्र से संतोष कर सकता है? संतोष तो करेगा ही नहीं वरन् उस मार्ग पर नि:शंक रूप से चलकर, गन्तव्य स्थान अवश्य प्राप्त हो जावेगा, ऐसा विश्वास करके तीव्रगति से चल देने की चेष्टा में संलग्न हो जावेगा। समझ में आ जाने के बाद तो उसको इतना हर्ष होगा कि अब तो उसको एक क्षण का विलम्ब भी असह्य लगने लगेगा। उसीप्रकार आत्मार्थी भव्य प्राणी को जब प्रथम ही सद्गुरु के उपदेश द्वारा संसार परिभ्रमण के अभाव करने की भावना जाग्रत होती है तब, उसके हृदय में ऐसे भाव सहज ही उत्पन्न होते हैं कि “अहो मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं, मैं तो भ्रम से भूलकर प्राप्त पर्याय ही मैं तन्मय हुआ, परन्तु इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है तथा यहाँ मुझे सर्वनिमित्त मिले हैं, इसलिये मुझे इन बातों को बराबर समझना चाहिये, क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन भासित होता है ।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २५७) इसप्रकार के भाव जिसके हृदय में जाग्रत हुए हों, वह उस मार्ग को समझने के लिए पूर्ण निष्ठा एवं तत्परता से जिनवाणी के अध्ययन, सत्समागम आदि में संलग्न हो जाता है। फलस्वरूप अपरिचित मार्ग स्पष्ट होकर समझ में आ जाने पर भी उसकी रुचि उम्र नहीं हो, ऐसा संभव ही नहीं हो सकता। उसकी रुचि तो उस मार्ग पर चलकर अपना ध्येय प्राप्त करने की कितनी उग्र हो जावेगी, यह तो हम उपरोक्त दृष्टान्त के माध्यम से अनुमान लगा ही सकते हैं। ऐसे आत्मार्थी को तो अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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