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________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान) (१८३ उपरोक्त विषय को सिद्ध करते हुए कलश २६६ व २७० के अर्थ में आचार्य कहते हैं :_ “जो पुरुष, किसी भी प्रकार से जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ, ज्ञानमात्र निजभावमय अकम्प भूमिका का (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस-मय निश्चय भूमिका का ) आश्रय लेते हैं, वे साधकत्व को प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं, परन्तु जो मूढ़ ( मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि ) हैं, वे इस भूमिका को प्राप्त न करके संसार में परिभ्रमण करते हैं। अनेक प्रकार की निज शक्तियों का समुदाय यह आत्मा नयों की दृष्टि से खण्ड-खण्ड रूप किये जाने पर तत्काल नाश को प्राप्त होता है, इसलिये मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि जिसमें से खण्डों को निराकृत नहीं किया गया है तथापि जो अखण्ड है, एक है, एकान्त शांत है (अर्थात् जिसमें कर्मोदय का लेशमात्र भी नहीं है, ऐसा अत्यन्त शांत भावमय है )और अचल है (अर्थात्-कर्मोदय से चलाया नहीं चलता) ऐसा चैतन्य मात्र तेज मैं हूँ।" उपरोक्त दोनों कलशों के अर्थ में आचार्य ने यह बात स्पष्ट की है कि आत्मा की अनुभूति प्राप्त करने का एकमात्र उपरोक्त मार्ग ही है। इस ही का समर्थन करते हुए आचार्यश्री कलश २७१ के द्वारा कहते हैं, उसका भावार्थ निम्न है - ____ "ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होने से ज्ञानस्वरूप है और वह स्वयं ही निम्नप्रकार से ज्ञेयरूप है । बाह्य ज्ञेय ज्ञान से भिन्न है, वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते, ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है। परन्तु वे ज्ञान की ही तंरगें है, वे ज्ञान तरंगें ही ज्ञान के द्वारा ज्ञात होती है । इस प्रकार स्वयं ही स्वत: जानने योग्य होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है, और स्वयं ही अपना जानने वाला होने से ज्ञानमात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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