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ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान )
मार्ग का ही पोषण करता है । नियमसार श्लोक २८६ एवं गाथा १७१ की टीका में इसी विषय का समर्थन निम्नप्रकार किया है :
" ज्ञान तो बराबर शुद्ध जीव का स्वरूप है, इसलिये ( हमारा ) निज आत्मा अभी ( साधक दशा में ) एक ( अपने ) आत्मा को नियम से ( निश्चय ) से जानता है और यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज दशा द्वारा सीधा प्रत्यक्षरूप आत्मा को न जाने तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूप से अवश्य भिन्न सिद्ध होगा” ॥२८६॥
" हे शिष्य ! सर्व परद्रव्य से परांमुख आत्मा को तू निज स्वरूप को जानने में समर्थ सहजज्ञानस्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान । इसलिये तत्व (स्वरूप) ऐसा है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं इसमें सन्देह नहीं है” ॥ ३७१ ॥
वर्तमान प्रकरण में हमको संसार मार्गी को मोक्षमार्ग में लगने के उपायों पर ही चर्चा करनी है । अत: आत्मा के स्व उपयोगात्मक ज्ञान की स्थिति पर चर्चा नहीं करेंगे अर्थात् ज्ञानी के निर्विकल्प ज्ञान की स्व- पर प्रकाशकता किसप्रकार वर्तती है उस पर चर्चा नहीं करेंगे वरन् अज्ञानी का ज्ञान एकान्तरूप से पर में ही उपयोगात्मक वर्त रहा है, उसको उधर से व्यावृत करके, कैसे आत्मसन्मुख करना ? इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये ज्ञान के स्व-पर प्रकाशक स्वभाव को समझने की चेष्टा करेंगे ।
अनेकान्त ज्ञान में ज्ञेयों की स्थिति
ज्ञान में ज्ञेय तो स्व एवं पर दोनों ही अनेकान्तपूर्वक ही होते हैं । अतः ज्ञेय संज्ञा तो स्व एवं पर दोनों को प्राप्त है। क्योंकि जिन द्रव्यों में प्रमेयत्व गुण है वे सभी तो ज्ञान के विषय बन सकते हैं और प्रमेयत्वगुण तो स्व एवं पर सभी में विद्यमान हैं अतः स्व एवं पर सभी को ज्ञेय संज्ञा प्राप्त होना ही चाहिये । लेकिन स्वआत्मा वास्तव में अनेकान्तात्मक स्व- पर
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