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ज्ञानज्ञेय एवं भेद-विज्ञान )
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इसप्रकार श्री कुंदकुंदाचार्यदेव आगे और कहते हैं । " वे सिद्ध भगवान सिद्धत्व से साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छन्द के स्थान पर हैं, जिनके स्वरूप का संसारी भव्यजीव चिंतवन करके, उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगति- मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।”
मोक्षमार्गप्रकाशक के पृष्ठ ७ पर भी इसी का समर्थन प्राप्त होता
है ।
" अथवा अरहंतादि के आकार का अवलोकन करना या स्वरूप विचार करना या वचन सुनना या निकटवर्ती होना या उनके अनुसार प्रवर्तन करना - इत्यादि कार्य तत्काल ही निमित्तभूत होकर रागादि को हीन करते हैं, जीव- अजीवादि के विशेष ज्ञान को उत्पन्न करते हैं। इसलिये ऐसे भी अरहंतादिक द्वारा वीतराग- विशेषज्ञानरूप प्रयोजन की सिद्धि होती है ।"
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इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों में भी उपरोक्त प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है । करणानुयोग में तो भगवान अरहंत की जिनबिंब के दर्शन मात्र की ही इतनी महिमा बताई है कि उनके दर्शन मात्र से ही कर्मों में निर्धात्ति, निकांचित बंध भी, जिनका अन्य प्रकारों से टूटना अशक्य है उनका भी अभाव हो जाता है । अतः हर प्रकार से भगवान सिद्ध एवं अरहंत का आत्मा, हमारी आत्मा के स्वरूप को पहिचानने के लिये साक्षात् आदर्शमॉडल के रूप ही सिद्ध होते हैं अर्थात् निर्णय में आता है।
भगवान अरहंत की आत्मा ही आदर्श क्यों ? भगवान अरहंत की आत्मा भी भूतकाल में हमारे जैसी ही विकृत आत्मा थी । भूतकाल पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि, सभी आत्माओं का निर्गम स्थान तो निगोद ही है। वहाँ से ही मेरा भी आत्मा निकला है और वहाँ से ही अरहंत का आत्मा भी निकला था। निगोद से निकलकर
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