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(सुखी होने का उपाय भाग - ५ अनुभव में आ रही है, उसमें शुद्ध आत्मा होने का अनुमान भी नहीं होता। लेकिन अनुसंधान- कर्ता ऐसे सर्वज्ञ परमात्मा ने, जो स्वयं पहले हमारे जैसी ही अशुद्ध आत्मा थी, उस अपने आत्मा में अशुद्धियों का अभावकर, १०० टंच के शुद्ध स्वर्ण के समान, अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया और वह स्वभाव वर्तमान में शुद्ध स्वर्ण के समान व्यक्त प्रगट है, विद्यमान है। इससे यह स्पष्ट है कि उनके समान मेरे आत्मद्रव्य में भी वर्तमान में ही शुद्ध आत्मतत्त्व विद्यमान है, मुझे वह वर्तमान में नहीं दिख रहा है, इससे ज्ञात होता है कि यह मेरी दृष्टि का ही दोष है। सर्वज्ञ भगवान ने उस शुद्ध आत्मतत्व को प्राप्त करने के पश्चात् ही जिनवाणी में कथन किया है। इसप्रकार की दृढ़तम श्रद्धा जिसके हृदय में जाग्रत हुई हो, ऐसा आत्मार्थी ही, अपनी आत्मा में भेदज्ञानरूपी अनुसंधान करने की पात्रता प्रगट कर पाता है । ऐसा आत्मार्थी ही, अपनी अशुद्ध आत्मा में से, शुद्ध १०० टंच के शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मतत्व को, भेदविज्ञान के माध्यम से प्रयोजनभूत एवं उपादेय तत्त्व के रूप में, एवं अन्य सभी प्रकार की मिश्रित दिखने वाली अशुद्धताओं को अप्रयोजनभूत एवं हेय तत्व के रूप में पहिचान लेता है । ऐसी यथार्थ पहिचान कर लेने का फल, कालान्तर में हेय तत्वों का नाश होकर, उपादेय तत्त्व शुद्धात्मा, निश्चित रूप से प्राप्त हो जाता है। ऐसी इस भेद विज्ञान की महिमा है।
भेदविज्ञान का मूल आधार जिसप्रकार अशुद्ध स्वर्ण को खरीदते समय, उसका मूल्याकंन करने के लिए उस डली में शुद्ध १०० टंच का स्वर्ण कितना हैं, यह निर्णय ही मूल्याकंन का मूल आधार होता है। उसीप्रकार अशुद्ध आत्मा में भी शुद्ध आत्मा खोजने का आधार, शुद्ध आत्मा के स्वरूप की यथार्थ ज्ञानजानकारी ही मूल आधार होता है।
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