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________________ ११६) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ हैं, वे विषय आत्मकल्याण के लिये सत्यार्थ हैं, अथवा भूतार्थ हैं, यह अपेक्षा ही मुख्य है। ___इसप्रकार द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिकनय के द्वारा अपने आत्मद्रव्य के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्तकर, उसमें हेय-उपादेय बुद्धि द्वारा एकाग्र होने से आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। निश्चयनय भूतार्थ एवं व्यवहार अभूतार्थ बताने का प्रयोजन प्रश्न :- यह होता है कि निश्चयनय को तो. भूतार्थ-सत्यार्थ आदि बताकर जिनवाणी में प्रशंसा की गई है, और व्यवहारनय को अभूतार्थ-असत्यार्थ आदि बताकर उसका तिरस्कार किया गया है, जबकि दोनों ही नय प्रमाणज्ञान के अंश हैं ? इसमें क्या रहस्य है ? उत्तर :- सर्वप्रथम भूतार्थ एवं अभूतार्थ की परिभाषा समझनी चाहिये । शास्त्र में कहा गया है - "भूतम् अर्थ प्रद्योतयति इति भूतार्थ, ___ अभूतम् अर्थ प्रद्योतयति इति अभूतार्थ:" "भूत अर्थात् प्रयोजनभूत अर्थ को बतावे, वह भूतार्थ और अभूत अर्थात् अप्रयोजनभूत अर्थ को बतावे, वह अभूतार्थ ।” . उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि जिनवाणी के समस्त कथनों का उद्देश्य तो आत्मकल्याण के लिये ही होता है। वास्तव में नय तो ज्ञान की पर्यायें हैं, उनमें तो किसी प्रकार का भूत अथवा अभूतपना होता ही नहीं है। लेकिन वे जिस विषय को विषय बनावें, वह विषय मेरे आत्मकल्याण में सार्थक हो तो, वह मेरे लिये प्रयोजनभूत है। इसलिये उसको बताने वाले नय को भी भूतार्थ कहकर, रुचि को उस ओर आकर्षित कराया जाता है और मेरे आत्मकल्याण के लिये अप्रयोजनभूत एवं अन्य विषयों को बताने वाले नय को अभूतार्थ बताकर, रुचि को उस ओर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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