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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता ) ( ११३ इसके विपरीत ज्ञानी को अथवा ज्ञानी बनने के लिये आत्मार्थी को भी ऐसी श्रद्धा होती है कि जगत में सर्वोत्कृष्ट पदार्थ कोई है तो वह मात्र मेरी आत्मा ही है । परमशुद्ध निश्चयनय का विषय कहो अथवा शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय कहो, ऐसी एकमात्र मेरी आत्मा ही आश्रय करने योग्य है, यही एकमात्र शरणभूत है, इस ही के शरण से आत्मानुभूति प्रगट हो सकती है आदि-आद अनेक प्रकार से अपनी महिमा आने से रुचि का केन्द्रीयकरण एकमात्र अपना त्रिकाली ज्ञायक परमात्मा हो जाता है और परज्ञेयों के प्रति रुचि उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है। फलतः क्रमशः ऐसी स्थिति पर पहुँच जाता है कि अपने स्व-पर- प्रकाशक ज्ञान में परज्ञेयों का ज्ञान होते हुए भी उनके जानने के प्रति भी रुचि क्षीण पड़ती जाती है और स्वज्ञेय की महिमा बढ़ती जाती है। सारे विश्व के ज्ञेयों को जानते हुए भी अपना अस्तित्व उनसे भिन्न, उनको जानते हुए भी नहीं जानते हुए के समान, उनसे अलिप्त प्रतिभासित होते हुए, मानों सबके ऊपर - पानी पर तैरते हुए तेल के समान, ऊपर ही ऊपर तैरता रहता है । सबसे अधिक अपना त्रिकाली ज्ञायक भाव, समस्त ज्ञेयों की उपेक्षापूर्वक जानते रहने वाला, अपने आप में विश्राम प्राप्त करने को परम चेष्टावान हो जाता है, उसको आत्मानुभूति प्रगट हुए बिना नहीं रहती । आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार गाथा ३१ की टीका में कहा भी है कि - “टीका :- ( जो द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को तीनों को अपने से अलग करके समस्त अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे मुनि निश्चय से जितेन्द्रिय हैं । ) अनादि अमर्यादारूप बंधपर्याय के वश जिसमें समस्त स्वपर का विभाग अस्त हो गया है " अर्थात् जो आत्मा के साथ ऐसी एकमेक हो रही हैं कि भेद दिखाई नहीं देता ऐसी शरीरपरिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियों को तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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