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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (१०७ के द्वारा इस निर्णय पर पहुँचना चाहिए कि पर्याय मात्र, मेरे लिये आश्रयभूत नहीं हो सकती। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार की गाथा ९३ में भी कहा है कि - ___“पदार्थ द्रव्य स्वरूप है, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं, और द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं। पर्यायभूत जीव परसमय अर्थात् मिथ्यादृष्टि है ॥ ९३ ॥ दूसरी ओर द्रव्य स्वभाव तो ध्रुक्-नित्यस्वभावी एवं अनंत गुणों का समुदाय रूप अखंड-अभेद, द्रव्य है। जो अनित्य स्वभावी पर्याय के साथ रहते हुए भी कभी बदलता नहीं-परिवर्तन करता नहीं। वह पर्यायार्थिकनय से पर्यायों के साथ परिवर्तन करते हुए भी, स्वयं तो अपरिणामी ही बना रहा, एकरूप ही बना रहा। ऐसा द्रव्य स्वभाव ही मात्र आश्रय करने योग्य है। जिसका आश्रय लेने से अपनापन स्थापन करने से, पर्याय क्षण-क्षण में जीवन-मृत्यु करते हुए परिणमती रहती है, तो भी उसी समय में तो अजर-अमर ही हूँ एवं बना रहूँगा। जो स्वयं जीवन-मरण से मुक्त है, उस ही के आश्रय से मैं भी जीवन मुक्त से रहित परम सुख, परम आनंद का भोक्ता बन सकूँगा आदि-आदि श्रद्धा जाग्रत करना ही आत्मार्थी का परम कर्तव्य है। इसही का समर्थन प्रवचनसार की गाथा नं. २३२ से प्राप्त होता है, वह इसप्रकार है “श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान् के होती है, पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा होता है, इसलिये आगम में व्यापार मुख्य है ॥ २३२ ॥ उपर्युक्त कथन से निश्चित होता है कि एकाग्रता ही एकमात्र आत्मानुभूति का सर्वोत्कृष्ट उपाय है । लेकिन जिस विषय में एकाग्र होना है, वह स्वयं ही अध्रुव अस्थिर हो तो वहाँ एकाग्रता संभव ही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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