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________________ ९६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ परप्रकाशक ज्ञान एवं उसके विषय परज्ञेयों की महिमा का अभाव करके, मात्र स्वज्ञेय में ही एकत्व को प्राप्त करूँ तो मैं स्वयं भी उक्त आनन्द का अनुभव कर सकता हूँ । मेरे आत्मा का त्रिकाली स्वभाव तो वर्तमान में भी अरहंत जैसा ही है, परज्ञेयों की तरफ आकर्षित होने का मेरा स्वभाव ही नहीं है, इत्यादि विचारों से श्रद्धा में विश्वास में अपने को अरहंत जैसा स्वीकार करता है। साथ ही ऐसी श्रद्धा जागृत करता है कि मेरे में मात्र वही सामर्थ्य है. जो कि वर्तमान में अरहंत भगवान कर रहे हैं; अत: मैं भी वैसा ही परिणमन करके भगवान बन जाऊँगा। इसप्रकार वह अपने लिए मोक्ष का मार्ग प्रारम्भ कर लेता है और उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त है करता जाता I ज्ञानक्रिया का स्वभाव एवं कार्यपद्धति प्रश्न उपरोक्त चर्चा से आत्मा का स्वभाव तो समझ में आता है; लेकिन उस आत्मा की जानने की प्रक्रिया अर्थात् आत्मा स्वपर को कैसे जानता है, यह स्पष्ट नहीं होता ? अतः इस विषय पर भी स्पष्टीकरण आवश्यक है । ― उत्तर जाननक्रिया स्वयं एक पर्याय है स्व को स्व के रूप में तथा पर को पर के रूप में जानना उसका स्वभाव है । उसका स्वामी ज्ञानगुण है, इसप्रकार आत्मा के ज्ञानगुण की, हर समय स्व-पर को जानने वाली नवीन नवीन उत्पाद व्यय करती हुई जाननक्रिया एक पर्याय है । ज्ञान का कार्य मात्र जानने का है; लेकिन गुण तो ध्रुव अक्रिय रहता है; अतः उसका कार्य पर्याय द्वारा ही निरन्तर व्यक्त होता है । अतः ज्ञान की पर्याय, हर समय ज्ञान करती हुई उत्पन्न होती हुई व नाश को प्राप्त होती रहती हैं, पलटती रहती है अर्थात् ज्ञेयों के जानने की क्रिया में संलग्न रहती है। ज्ञान का स्वर्भाव स्व-पर को जानने का है । अतः उसकी हर पर्याय का स्वभाव भी जानने का ही है। प्रवचनसार गाथा ४२ के भावार्थ में भी निम्नप्रकार कहा है — Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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