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________________ ६६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ अपनी वस्तु में त्रिकालीसत् बने रहते हैं, इसप्रकार हरएक वस्तु त्रिकाल बनी रहती है। ४. विशेषता यह है कि वे गुणस्वभाव, अपनी-अपनी वस्तुओं में तादात्म्यवृत्ति धारणकर, व्याप्य-व्यापक होकर, रहते हुए भी निरन्तर पलटते रहते हैं । ५. वे वस्तुएँ अपने-अपने गुणस्वभावों के साथ नित्य एकरूप बने रहने पर भी उनकी अवस्थायें निरन्तर पलटती रहती हैं। यही कारण है कि हरएक वस्तु हरसमय पलटती हुई अनुभव में आती हैं और दूसरी वस्तु जो उस पलटने के काल में ही, प्रयोजनभूत वस्तु के साथ निकटरूप से विद्यमान है, वह प्रयोजनभूत वस्तु की अवस्था के साथ मिलकर एक जैसी हो गई हो ऐसी दिखती है, लेकिन एक नहीं होती, भिन्न ही बनी रहती है। मिश्रित स्वर्ण की डली के समान । विश्व की हरएक वस्तु की उपरोक्त व्यवस्था है और वह त्रिकाल अबाधित बनी ही रहती है । उक्त स्थिति को मुख्य रखते हुए, जो निजआत्मा प्रयोजनभूत है वह अन्य द्रव्यभावों में मिला दिखने पर भी, स्वयं के गुणस्वभावों के यथार्थज्ञान श्रद्धान द्वारा सरलता से भिन्न पहिचाना जा सकता है, इसी का नाम भेदज्ञान है, ऐसे ही भेदज्ञान की महिमा आचार्यश्री अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति टीका के कलश २९-३०-३१ में की है । इसप्रकार सर्वप्रथम हमको अपने आत्मा का, गुणस्वभावों के यथार्थ परिज्ञानपूर्वक ज्ञान श्रद्धान कर, उसको एवं उसके परिणमन को पहिचानना चाहिए तभी भेदज्ञान की सिद्धि होना संभव है । जीवतत्त्व का अपनी ही विकारी पर्यायों से भेदज्ञान • जीवद्रव्य एवं जीवतत्त्व के अन्तर को तो आप इसी पुस्तक के देशनालब्धि के प्रकरण के अन्तर्गत आई हुई चर्चा से समझ ही चुके हैं । अतः जीवद्रव्य का अन्य द्रव्यों से भेद-ज्ञान तो सरलता से समझा जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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